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________________ बम्बई और लन्दन : (541) राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय सेवा के कार्यों में भरपूर आर्थिक या अन्य सक्रिय सहयोग भी उनकी आन्तरिक उदार मनोवृत्ति का द्योतक है। सचमुच ही, मांसाहारी समाज की इस मधुर वाणी और मनोरम क्रियाओं से प्रभावित हुये बिना नहीं रहा जा सकता। विदेशी होने के नाते विभिन्न नगरों की सड़कों पर आपका अनजान ही स्वागत करने वाले, कुशल क्षेम पूछने वाले और भीतरी परिचय चाहने वाले ऐसे कई लोग मिलेंगे जो भारत में भारतीय के लिये शायद ही कभी मिलें। यद्यपि भारत में भारतीय विभिन्न भाषा-भाषी अन्य प्रान्तों में अधिक विदेशीपन का अनुभव करता है। मधुरताओं के बावजूद भी, लन्दन के व्यक्ति से बात-चीत करना बड़ा मनोरंजक प्रतीत होता है। उसकी भाषा में कुछ ऐसी शब्दावली है, जो उसके अभिप्राय को सत्य-असत्यहीन के रूप में प्रस्तुत करती है। "आइ विलीव", "आई थिंक", "परहैप्स' आदि शब्दों के प्रयोग से सत्य और स्पष्ट बात में भी नवागंतुक को संदेह की कोटि दिखती है। शिष्टाचार की भाषा में, "वी शैल सी" शब्द में सकारात्मकता अधिक मानी जाती है। पर इसका व्यावहारिक रूप यहां नकारात्मक ही मिलेगा। हिन्दुस्तान की भाषा में विविधता जितनी हो, व्यावहारिक रूप में यह इतनी सन्देह भरी नहीं होती है। यद्यपि अंग्रेजी के इस रूप का थोड़ा बहुत प्रभाव हमपर पड़ने लगा है और हमें बातचीत में थोड़ा सतर्क रहना पड़ता है। साहित्यिकों की भाषा की बात निराली है। यह तो सदैव दुधारी होती है। बम्बई में भी ऐसी बातचीत वाले अगणित लोग मिलने लगे हैं। यही नहीं, इस तरह की प्रसुप्त भाषा का उपयोग भारत में निरन्तर बढ़ रहा है, जिसे मैं हितकर नहीं समझता। विशेषकर, मालिक-मजदूर, अधिकारी-कर्मचारी आदि पारस्परिक सहयोगपरक सम्बन्धों में भाषा की स्पष्टता के साथ मन की मानवीय उदारता बहुत जरूरी है। मुझे अच्छी तरह ख्याल है कि एक अधिकारी ने मेरे मित्र के विरुद्ध एक विश्वसनीय विवरण लिखा था और वे उस मित्र के विषय में सदैव प्रशंसात्मक चर्चायें किया करते थे। भाषा और कार्यों की यह द्विविधता तो मिटनी चाहिये। यदि आप कुछ न कहें, गम्भीर मुद्रा बनाये रहें, तो बात और है। ऐसे गम्भीर मुद्रा वाले लोग भी सभी प्रकार के होते हैं। बहुत-सी बातों में लन्दन के लोग बड़े स्पष्ट हैं। उदाहरणार्थ, यदि वे उन्हें आप के काम से संतोष नहीं है, तो वे आपको आवश्यक सुधार सूचना के साथ आपको नौकरी छोड़ने की स्वयं सलाह दे देंगे यदि आपने कोई नियम भंग किया है, तो न्यायाधीश के सामने अधिकतर लोग उसे स्वीकार कर लेते हैं। यहां भारत जैसे स्वयं को निर्दोष मान लेने की परम्परा नहीं है। अधिकारीगण भी नियम-भंग की स्थिति में आपसे सहानुभूति प्रदर्शित करने के अतिरिक्त आपकी अन्य कोई सहायता नहीं करेंगें। इस तरह की प्रवृत्तियां भारत में अधिकाधिक प्रचलित हों, तो कितना अच्छा रहे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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