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________________ (530) : नंदनवन हैं। इन विद्याधर जाति के मनुष्यों के अतिरिक्त, सामान्य मनुष्य भी इन विद्याओं को जप, ताप होमादि के द्वारा गिरितट, नदी-जल, वृक्ष-कोटर, श्मशान आदि में साधना, संजयंत स्वामी की भक्ति, देवाराधना तथा विशिष्ट कारणों से बन्धन-मुक्ति (कंधे पर गिरने, पे.349, नागपाश-मुक्ति, पे.360) आदि से सिद्ध कर सकते हैं। इस पुराण में अनेक ऐसे विद्या साधकों के प्रकरण हैं। इन विद्याओं के सिद्ध होने पर इनके अनेक प्रकार के प्रभाव देखे जाते हैं। उदाहरणार्थ, पर्णलघ्वी विद्या से व्यक्ति पत्रों के समान लघु-शरीरी हो जाता है। ये आकाशगमन क्षमता प्रदान करती हैं, अनेक रूपधारिणी विशेष क्रियाओं में सहायक होती हैं। इनसे पिशाच-निग्रह होता है । इनसे सेना मूर्छित की जा सकती है, इनसे सेना बनाई जा सकती है। इससे सिंह, शावक आदि के रूप भी धारण किये जा सकते हैं। इससे प्रद्युम्न अपनी टांग भी ऐसी मजबूत कर सकता है कि उसे न कोई उठा सके, न तोड़ सके। इनकी सहायता से पति-पत्नियों या अन्य किसी को भी हरण कर यथेच्छ स्थान ले जाया जा सकता है। इन विद्याओं से विद्यास्त्र प्राप्त किये जा सकते हैं। चंडवेग ने (सर्ग 25) वासुदेव को अनेक दिव्य विद्यायें प्रदान किये जाने एवं उनके चलाने और संकोचन की विधि बताई। इनमें से 19 का नामोल्लेख पेज 355 पर निम्न रूप में हैं : 1. ब्रह्मशिर, 2. लोकोत्सादन, 3. आग्नेय, 4. वारुण, 5. माहेन्द्र, 6. वैष्णव, 7. यमदंड, 8. ऐशान, 9. स्तंभन, 10. मोहन (मूर्छन), 11. वायव्य, 12. श्रृंभण, 13. बन्धन, 14. मोक्षण, 15. विशल्यकरण, 16. व्रणरोहण, 17. सर्वास्त्रछादन, 18. छेदन, 19. हरण। इन अस्त्रों में कुछ औषधीय भी हैं जो युद्धजन्य शारीरिक व्याधियों को दूर करने में काम आते हैं। इन अस्त्रों के नाम से उनके कार्यों का अनुमान हो जाता है। इनमें से ही अनेक अस्त्र वासुदेव एवं कृष्ण ने और उनके प्रतिद्वंदियों ने अनेक युद्धों में प्रयोग में लिये थे। इस कारण उन्हें युद्धास्त्र भी कहा जाता है। दिव्य धनुष, दिव्य बाण, दिव्य विमान आदि भी इसी कोटि में समाहित हो जाते हैं। ये विद्या-प्रभाव विद्या-बल भी कहलाते हैं क्योंकि विद्याओं के कारण ही ये प्रभाव प्रभावी रूप में प्रकट होते हैं। इन विद्याओं को विद्यावान लोग दूसरों को दे भी सकते हैं (जैसे कनकमाला ने प्रद्युम्न को दूध के साथ गौरी और प्रज्ञप्ति नामक विद्यायें प्रदान की थी, पे.563)। इन विद्याओं का अखण्ड माया से हरण भी किया जा सकता है (पे.235, 371) इस पुराण में इन प्रभावों का स्थान-स्थान पर वर्णन है। इससे पौराणिक आख्यानों की परालौकिकता और रोचकता का आभास होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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