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________________ (526) : नंदनवन के अर्थ-विस्तार हैं। 'विद्या' शब्द की यह व्यापक लौकिक एवं लोकोत्तर परिभाषा है । इसकी एक रूढ़ परिभाषा भी है। अनेक ग्रन्थों के अनुसार विद्या वह हैं जो जप, तप आदि अनुष्ठानों से सिद्ध होती है तथा जिसकी एक अधिष्ठात्री देवी होती है। इस आधार पर विद्या का यह अर्थ परालौकिक रूप लेता है। विद्याओं से सम्बन्धित सर्वाधिक प्राचीन पर अब अनुपलब्ध (या लुप्त ?) ग्रन्थ 'विद्यानुवाद' पूर्व है। इसमें 'विद्या' शब्द का उपयोग 'साधनीय विद्याओं' के रूप में लिया गया है। इसमें 700 लघु - विद्याओं और 500 महाविद्याओं का उल्लेख है । इनका विवरण वर्तमान में अप्राप्त है। इनका उल्लेख इस पुराण के दसवें सर्ग में भी किया गया है। पर यह 'विद्या' शब्द का सीमित अर्थ है या इसे रूढ़ भी माना जा सकता है। वस्तुतः विद्या का अर्थ अधिक व्यापक है। 'विद्या' शब्द अनेक शब्दों के साथ सम्बद्ध रूप में पाया जाता है : विद्यानुवाद (ग्रंथ), विद्यासिद्धि, विद्या-कर्म, विद्यावान, विद्याबल, विद्या-अस्त्र, विद्याचारण, विद्याधर, विद्याधर जिन और श्रमण, विद्यादोष आदि । इन सम्बद्ध शब्दों के कारण विद्या के स्रोतों, प्राप्ति की विधियों, अध्ययन, अध्यापन, यजनादि (उपवास), साधनादि और उपयोगों का अनुमान लगाया जा सकता है। इन शब्दों के आधार पर हमें 'विद्या' के तीन रूपों का भान होता है: 1. जीवन - निर्वाहिणी विद्यायें 2. चमत्कारी या सिद्ध विद्यायें 3. आध्यात्मिक विद्यायें धवला ने इन्हें अन्य रूप से त्रिविध बताया है : 1. जातिविद्या 2. कुलविद्या 3. तपविद्या : मातृपक्ष से प्राप्त हुई विद्यायें : पितृपक्ष से प्राप्त विद्यायें : उपवास, साधना आदि से सिद्ध विद्यायें इसके अनुसार जाति और कुल विद्यायें तो जीवन निर्वाहणी विद्यायें हैं और उपरोक्त अन्य दो कोटियां तपविद्या के अन्तर्गत आती हैं। ये तीनों ही विद्यायें पारलौकिक भी होती हैं । धवला के अनुसार ये विद्याधर कोटि के मनुष्यों में होती हैं। इसकी अधिष्ठात्री देवियां भी होती हैं । जीवन - निर्वाहणी विद्यायें भोगभूमि - युग के समाप्त होते समय भगवान् ऋषभदेव ने कृत-युग में जनता की आजीविका निर्वाह के लिये निम्न षट्कर्मों का उपदेश दिया था जिनकी परिभाषा राजवार्तिक 3.36 के अनुसार यहां दी जा रही है : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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