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________________ (524) : नंदनवन विवरणों में जैन विवरण, हिन्दू मान्यताओं की तुलना में संख्यात्मक दृष्टि से विशालतर हैं, पर पुराणों की दृष्टि से वे कैसे पीछे रहे गये, यह विचारणीय हैं। हरिवंश पुराण और उसके वर्णन हरिवंश पुराण शुद्ध हरिवंश चरित नहीं है क्योंकि इसमें नारायण-प्रतिनारायण, विद्याधर, साधु तथा इक्ष्वाकु वंश से सम्बन्धित चरित्र मिलते हैं। इसका अधिकांश वर्णन नारायण कृष्ण एवं तीर्थकर नेमिनाथ चरित से सम्बन्धित है, फलत: इसे धवला की परिपाटी के अनुसार, 'शुद्ध हरिवंश पुराण न कहकर 'मिश्र हरिवंश पुराण कहा जाना चाहिये। फिर भी, इसका नाम 'आम्राः वन' की परिपाटी में हरिवंश पुराण माना जा सकता है। हरिवंश के चरितों पर समय-समय पर अनेक कवियों ने विविध भाषाओं में विविध रूपों में काव्य ग्रन्थ लिये हैं, पर संस्कृत जैन पुराणों की श्रृंखला में यह हरिवंश चरित्र पर प्रथम ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के रचयिता बहुश्रुतपारगामी आचार्य जिनसेन प्रथम हैं जिनके वंशादि का परिचय तो उपलब्ध नहीं है, पर इसी पुराण के अनुसार वे पुन्नाट संघ के आचार्य कीर्तिषेण के शिष्य थे। उन्होंने इस ग्रन्थ का रचनाकाल 783 ई. बताया है। इसका रचना स्थान बढमाण तथा दोस्तटिका के पार्श्वनाथ जिनालय हैं जो काठियावाड में गिरनार क्षेत्र के मार्ग में पड़ते हैं। यह दिगम्बर परम्परा का ग्रंथ है। आठवीं संदी और गुजरात में रचित होने के कारण इसमें कवि के समय की अनेक विचारधाराओं एवं परम्पराओं का विवरण होना ही चाहिये। इसमें वर्तमान बीस पंथ आम्नाय की अनेक प्रवृत्तियां वर्णित हैं। आगमों के अंगवाह्य विवरण में श्वेताम्बर परम्परा के विपर्यास में, इसमें 14 प्रकीर्णक ही दिये गये हैं। तथापि, इस ग्रन्थ के भौगोलिक एवं ऐतिहासिक विवरण शोधकों को अनुसंधान की नयी दिशायें दे सकते हैं। इस पुराण में 66 सर्ग हैं जिनमें मुख्य कथा के अतिरिक्त अनेक उपकथायें समाहित हैं। यदि सर्ग और प्रतिसर्ग का अर्थ सृष्टि रचना और विकास-विनाश भी लिया जाय, तो वह भी इस ग्रन्थ में है। इसमें अनेक वंशों का विवरण और कुछ के प्रमुख व्यक्तियों का चरित है। इसमें अनेक कालखंड भी समाहित हुये हैं जिनमें भ. ऋषभदेव से लेकर भ.नेमिनाथ और भ.महावीर का युग भी आया है। फिर भी, इसमें हरिवंश की एक शाखा यादव कुल के भ.नेमिनाथ और नारायण काल का प्रमुख वर्णन है। अतः यह ग्रन्थ पुराण की पंचलक्षणी परिभाषा को सार्थक करता है। तथापि, यह ध्यान में रखना चाहिये कि इस ग्रन्थ के वर्णन जैन परम्परानुसार ही हैं जो तत्तत् सम्बन्ध में अन्य परम्पराओं से तुलनीय हैं। भक्तिवाद का प्रेरक तो यह ग्रन्थ है ही। इस ग्रन्थ में कथोपकथनों के अन्तर्गत अनेक विषयों का वर्णन किया गया है। इनमें अनेक वर्णन परम्परागत हैं। त्रिलोक और आगमों का विवरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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