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________________ जैनविद्या संवर्धन में विदेशी विद्वानों का योगदान : (511) इन्होंने 'स्टडीज इन जैनीज्म' पुस्तक में अपने लेखों को प्रकाशित किया । फ्रांस के विद्वान डा. ग्वेरिनो ने इनके निर्देशन में ही जैन धर्म सीखा था । अर्न्स्ट लायमान ( 1859 - 1931 ) मूलतः स्विटरजरलैंड के थे, पर उनका कार्यक्षेत्र जर्मनी ही रहा। वे वीबर के शिष्य थे। इन्होंने आगमों की नियुक्ति और चूर्णियों का अध्ययन किया जो पश्चिम में अभी तक अज्ञात थे। उन्होंने औपपातिक सूत्र तथा जीतकल्प का सम्पादन कर विवेचनात्मक ग्रंथ लिखे । इन्होंने 'आवश्यक स्टोरीज' भी प्रकाशित किया, जो अधूरा ही रहा। बाद में उन्होंने 'सर्वे आव दी आवश्यक लिटरेचर' लिखा, जो हैम्बुर्ग से प्रकाशित हुआ । इन्होंने स्ट्रासवर्ग के पुस्तकालय की पांडुलिपियों का अध्ययन कर अनेक प्राकृत आगमों का सम्पादन किया। इससे पिशेल को अपने 'प्राकृत व्याकरण' के निर्माण में बड़ी सहायता मिली। उन्होंने पाकिस्तान में अन्वेषित पांडुलिपियों के आधार पर ब्राह्मी भाषा और लिपि का उद्वाचन किया । जर्मनी के जैन विद्यामनीषी वाल्टर शुब्रिंग ( 1881 - 1969) का नाम कौन नहीं जानता ? वे लायमान के शिष्य थे। बाद में, वे हैम्बुर्ग में भारत - विद्या के प्रोफेसर बने। इन्होंने कल्प, निशीथ, व्यवहार एवं महानिशीथ जैसे छेदसूत्रों का सम्पादन किया और 'वर्क आव महावीर भी लिखा । इन्होंने जैनधर्म के परिचय के लिये 'डी लेहरे डेर जैनाज' (द डॉक्ट्रीन्स आव दी जैनाज) नामक लोकप्रिय पुस्तक लिखी जिसे भारत में अंग्रेजी में भी प्रकाशित किया गया। इस पुस्तक का आधार मुख्यतः श्वेताम्बर साहित्य रहा है । इसमें जैन इतिहास, साहित्य और समाज के साथ जैन सिद्धान्तों की विश्लेषणात्मक जानकारी है। इनके समय में ही बाल्टर डेनेके ने दिगम्बर ग्रंथों की भाषा पर शोध की थी । जै. हर्टल ( 1872 - 1955) ने भी श्वेताम्बर जैनों के कथा साहित्य पर एक पुस्तक लिखकर जैन सिद्धान्तों के साथ जैन कथाओं की ओर भी विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया । फ्रांस की विदुषी डा. कैया ने इन्हीं के निर्देशन में छेदसूत्रों पर काम किया था । हैम्बुर्ग में ही अनेक विद्वानों ने दिगम्बर पन्थ पर भी काम किया है ( ओकुडा, 1975 ) । - हैल्मुद वान ग्लेजनप ( 1891 - 1963) ट्यूबिंगन विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे हैं। ये याकोबी के शिष्य थे। इस विश्वविद्यालय में जर्मनी का सबसे बड़ा पुस्तकालय है जिसकी स्थापना 1477 में हुई। आज इसमें तीस लाख पुस्तकें हैं और 9000 पत्रिकायें आती हैं। इन्होंने जैनधर्म पर दो लोकप्रिय और अनके प्रमुख पुस्तकें लिखी हैं, 'डेर जैनिसमुस' का हिन्दी सार पं. कैलाशचंद्र शास्त्री के 'जैन धर्म' मे पाया जाता है। यह गुजराती में भी प्रकाशित हुई है। 'डी लेहरे फोम कर्मन इन डेर फिलासफी जैनाज' का अनुवाद पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी ने अंग्रेजी में प्रकाशित किया है। बाद में यह हिन्दी में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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