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________________ जैनविद्या संवर्धन में विदेशी विद्वानों का योगदान : (509) पाश्चात्य विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत किया और जैन धर्म व संस्कृति के प्रति उनका ध्यान आकृष्ट किया। ईसाई धर्म-प्रचारकों ने भी इस कार्य में योगदान किया। इन सूचनाओं और अध्ययनों के आधार पर अनेक सामान्य और विशेष विश्वकोषों में जैन समाज, साहित्य, और कला को किंचित् स्थान मिला। पश्चिम में इसके स्वतन्त्र धर्म के अस्तित्व के इतिहास के रूप में मान्यता के चार चरण स्पष्ट हैं : 1. जैन धर्म, हिन्दू धर्म का सुधारवादी रूप है।(जे. वी. प्राट, 1916) 2. जैन धर्म, बौद्ध धर्म की ही एक शाखा है। (ए. बार्थ, 1881) 3. जैनधर्म स्वतन्त्र धर्म है जो बुद्धपूर्व था। यह वैदिक संस्कृति की तुलना में समानान्तर श्रमण संस्कृति का जीवन्त रूप है। (याकोबी, 1874) 4. जैनधर्म स्वतन्त्र धर्म है। यह पूर्व-वैदिक, सिन्धु घाटी सभ्यताक, विशुद्ध भारत-मूलक एवं वर्तमान में ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तित है। वर्तमान में अपवादों को छोड़ प्रायः सभी पश्चिमी और पूर्वी विद्वान् चौथे चरण को स्वीकृत करते हैं। इस चरण के प्रवर्तन में अनेक इंग्लैंड और जर्मनी के विद्वानों का प्रमुख हाथ रहा है। यूरोप : (अ) जर्मनी पश्चिमी देशों में जैन विद्यायें प्रारम्भ में भारत-विद्या की अंग रही हैं और अब ये दक्षिण-पूर्व-एशियाई या सामान्यतः एशियाई अध्ययन या पूर्वी विद्याओं के अध्ययन विभागों में समाहित हो गई हैं। ये विभाग अनेक देशों के अनेक विश्वविद्यालयों में हैं। __ पश्चिमी देशों में भारत-विद्या के साथ जैनविद्या संवर्धकों में मैक्समूलर (1823-1900) का नाम सर्वोपरि आता है। वे जर्मन मूल के थे, पर उनका अधिकांश जीवन ऑक्सफोर्ड (इंग्लैंड) में बीता। केशवचंद्र सेन, प्रतापचंद्र मजुमदार और स्वामी विवेकानन्द उनसे मिले थे। यद्यपि वे अपने जीवनकाल में भारत की यात्रा न कर सके, पर उन्होंने अपने व्याख्यानों एवं ग्रंथों द्वारा भारतीय संस्कृति की गरिमा को विश्व में प्रतिष्ठित किया। उनके 'सेक्रेड बुक्स आव दी ईस्ट' के दो खंडों में जैनों के कुछ आगम भी समाहित हुए हैं। इसी बीच विन्डिश ने हेमचन्द्र के योगशास्त्र का सम्पादन एवं अनुवाद भी (1825-1890) में प्रकाशित किया। आलब्रेस वीबर दूसरे जर्मन विद्वान् हैं जिन्होंने जर्मनी में उपलब्ध पांडुलिपियों के आधार पर श्वेताम्बर आगमों का अध्ययन कर 'ओवर द हीलेजेन शिफ्टेन डेर जैनाज' नामक महत्त्वपूर्ण पुस्तक (1883-1885) लिखी जिसने उत्तरवर्ती विद्वानों की जैन आगमों के विषयों के प्रति रुचि जगाई। जैनविद्या पर काम करने के बावजूद भी, ये भारत-यात्रा पर नहीं आ सके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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