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नंदनवन
इस वृद्धि के प्रभावों का आभास 1950-60 के दशक में हुआ जब हरित क्रान्ति के माध्यम से रासायनिक खाद, कीटाणुनाशक तथा अन्य उपायों का आश्रय लेकर खाद्य पदार्थों तथा अन्य तकनीकों से अन्य उपयोगी पदार्थों के उत्पादन में अच्छी वृद्धि सम्भव हो सकी। इससे उपरोक्त सन्तुलन स्थिर बनाये रखने का प्रयास किया गया। तथापि, जनसंख्या की वृद्धि के फलस्वरूप वाहित मल एवं कूड़े-करकट की प्रदूषणकारी मात्रा में भी अपार वृद्धि हुई है। यह पाया गया है कि यह प्रदूषण इन आवश्यकताओं के घातांक अनुपात में बढ़ता है। अब वैज्ञानिक इस प्रदूषण को दूर करने में लगे हुए हैं। अपने अथक प्रयासों से वे इस समस्या के समाधान में प्रयत्न कर ही रहे थे कि उन्हें यह भी आभास होने लगा है कि इस सदी के समापन के साथ पृथ्वी की उर्वरा शक्ति में, हरित क्रान्ति के बाद भी, कमी आती दिख रही है। फलतः विश्व की जनसंख्या के लिये समुचित आहार और अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति की समस्या फिर सामने आ रही है। इस निराशावादी स्थिति में भी वैज्ञानिक आशावादी बना हुआ है। वह मानव के जीवन के अस्तित्व को सुरक्षित रखने में समर्थ होगा।
इस लक्ष्य को ध्यान में रखकर वह अब जनसंख्या वृद्धि के नियंत्रण के विभिन्न उपायों को सक्रियता से मूर्तरूप देने की व्यवस्था कर रहा है। हम अपनी जनसंख्या को अन्य ग्रहों पर तो भेज नहीं सकते, वहां जीवन की सम्भावना ही कम है। एक देश की अतिरिक्त जनसंख्या दूसरे देश में भी नहीं जा सकती, क्योंकि उसकी अपनी समस्यायें हैं। फलतः इनसे अतिरिक्त ही अन्य उपाय खोजने होंगे। इनमें जन्म-निरोध और बंध्याकरण की विधियां और गर्भपात के उपाय प्रमुख हैं। पश्चिमी देशों में अधिकांश उनका उपयोग कर रहें है। जापान की प्रगति का प्रमुख कारण 1948 में बना उनका गर्भपात नियम ही माना जाता है। भारतीय धर्मशास्त्री इन उपायों से अन्तरंग रूप से सहमत नहीं दिखते और वे ब्रह्मचर्य के अभ्यास पर बल देते हैं । पर जनसंख्या वृद्धि से सम्भावित भुखमरी, अकालमृत्यु, एवं कुपोषण की भयंकर समस्यायें सामने हैं, हमें उन्हें ध्यान में रखकर ही सबसे कम बुराई
और अधिकतम भलाई वाला हिंसा के अल्पीकरण का मार्ग चुनना होगा, तभी हमारा अस्तित्व सुरक्षित रह सकेगा। आज विश्व की जनसंख्या में दस वर्षीय शून्य वृद्धि के कार्यक्रम की आवश्यकता है। इसे हम जनसंख्या संयम कह सकते हैं। इस हेतु हमारे धर्माचार्यों के व्यक्तिवादी ब्रह्मचर्य और संयम के उपदेशों को जनवादी रूप में प्रस्तुत करने की आवश्यकता है। __ इन उपायों पर सोचने और मूर्तरूप देने का आधार भी है। वैज्ञानिकों ने यह पाया है कि पर्यावरण की उत्पादन क्षमता की एक अधिकतम सीमा है जो हम पार करने की स्थिति में आ रहे हैं। उन्होंने आपूर्ति-क्षमता-सीमा
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