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________________ (470) : नंदनवन 3. रात्रि में सूर्य प्रकाश के अभाव में या दीपादि के मन्द प्रकाश के सद्भाव में भोजन बनाने के समय किये गये आरम्भ कार्यों में त्रस - स्थावर जीवों की हिंसा सम्भावित है । 4. रात्रिभोजन में अनेक प्रकार के जीवों के कारण अनेक रोग उत्पन्न हो सकते हैं 1 5. जो रात्रि में भोजन करते हैं, वे भूत-प्रेतादि के साथ भोजन करते हैं, मांसाहारी जीवों के साथ भोजन करते हैं। I 6. रात्रि भोजन अपवित्र होता है। रात्रिभोजी मानव रूप में पशु ही है। प्राचीन आचार्यों ने रात्रिभोजन त्याग के लिये आलोकित पान - भोजन की भावना की व्यवस्था की थी। बाद में इसे मूल गुणों में समाहित कर अनिवार्य बनाया गया । रात्रिभोजन त्याग से अहिंसक दृष्टि के अतिरिक्त निम्नि महत्त्वपूर्ण लाभ हैं। (1) रात्रिभोजन न करने से पेट को भोजन के पाचन एवं स्वांगीकरण के लिये पर्याप्त समय - 12 घंटे तक मिलता है । अतः ये क्रियायें प्राकृतिक रूप से सरलता से संपन्न हो जाती हैं। इससे मन और शरीर हल्का रहता है, आलस्य नहीं रहता, बुद्धि भी निर्मल बनी रहती है। ( 2 ) रात्रिभोजन त्याग से अच्छी गहरी प्राकृतिक निद्रा आती है। यह उत्तम स्वास्थ्य एवं दीर्घजीविता का प्रतीक है। ( 3 ) रात्रिभोजन से जठर पर कार्य का अधिक बोझ पडता है। इसके फलस्वरूप जठराग्नि की मंदता, दीर्घायुष्य की कमी एवं स्वास्थ्यजन्य अनेक बाधायें एवं रोग उत्पन्न होते हैं । 22. विष विष ऐसे पदार्थों को कहते हैं जो जीवन या प्राण का नाश कर सकें, शरीर - तन्त्र की क्रियाविधि को निरुद्ध कर मृत्यु तक ले जा सकें । 'सव्वेसिं जीवणं पियं' के सिद्धान्तानुसार कोई भी जीव जीवन-नाशक पदार्थों को खाना पसन्द नहीं करेगा। अतः विषों की अभक्ष्यता निर्विवाद है, फिर भी, आजकल विष की परिभाषा में कुछ परिवर्तन हुआ है। कुछ विषैले पदार्थ ऐसे होते हैं जो उच्चतर प्राणियों के लिये मारक होते हैं । एन्टीबायोटिक या वर्मिन जैसी उदर- कृमिनाशी दवाओं के सेवन से क्या हानि है ? पर विष तो विष ही है चाहे किसी कोटि के जीव को मारे । अतः सिद्धान्ततः उपरोक्त कोटि की आधुनिक दवाओं अथवा वत्सनाग, हरिताल, संखिया, सल्फास आदि भारतीय या नवीन औषधियों का सेवन उचित प्रतीत नहीं होता । विषों से अन्तर्जीव नष्ट होते हैं, शरीर शिथिल होता है, चेतना शून्यता तक आती है, वमन विरेचन भी होता है। यह प्रत्येक दृष्टि से कष्टकर है। वैज्ञानिक अन्वेषणों से विषों की जीवन नाशक मात्राएं भी ज्ञात कर ली गई हैं। फिर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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