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________________ (448) : नंदनवन 9. 10. 11. 12. हरित (पत्र शाक ) : बथुआ आदि जलरुह : काई, कुमुद आदि कुहण (अंकुरित ) : कुकुरमुत्ता, कुक आदि औषधि (अन्न) : गेहूं, धान, मूंगादि 26 28 10. पल्लक 27 11. गडूची 10 12. गुग्गुल 13. छिन्नरुह 14. थोर Jain Education International 15. कुमारी पौधे बेल 16. 17. पणक 18. शैवाल 19. कोमल फल 20. गूढ़ शिर विशिष्ट शाक गिलोय (औषधि) औषधि खल्लड़, खरसान कांटेदार औषधि वृक्ष For Private & Personal Use Only शतावरी, सुआवेल फंगस जूट, सन आदि आगमों के अनुसार अर्धपक्व, अनग्निक्व, अशस्त्रप्रतिहत वनस्पति, चाहे वे किसी कोटि के हों, अभक्ष्य माने गये हैं, अन्य दशाओं में वे भक्ष्य हैं। मूलाचार में भी इनके अनग्निपक्वता की दशा में अनेषणीयता की चर्चा है। आचारांग और दशवैकालिक में जल और उसके विभिन्न धोवनों के अतिरिक्त, लगभग तत्कालीन प्रचलित 100 वनस्पतियों के नाम दिये हैं। निशीथचूर्णि में भी तत्कालीन भक्ष्यों के रूप में प्रयुक्त होनेवाली 72 वनस्पतियों के नाम हैं। यह मत समीचीन नहीं लगता कि सामान्यजनों के लिये वर्णित अभक्ष्यता के सिद्धान्त श्रमणों पर लागू नहीं होते । " 10 काई कच्चे फल अभक्ष्यों की धारणा का विकास ऐसा प्रतीत होता है कि आगमोत्तर काल में भक्ष्याभक्ष्य विचार में अपक्वता एवं अशस्त्र - प्रतिहतता की धारणा में परिवर्तन हुआ। जब उत्तरकाल में वनस्पतियों का वर्गीकरण हुआ, तब प्रत्येक कोटि की तुलना में अनन्तकायिक कोटि का, अहिंसक दृष्टि से, सापेक्ष अभक्ष्यता का मत प्रस्तुत किया गया। इस दिशा में दिगम्बराचार्यों का अधिक योगदान रहा। उनके विवरण पर्याप्त निरीक्षण-क्षमता और उसकी तीक्ष्णता को व्यक्त करते हैं। शांतिसूरि ने भी ग्यारहवीं सदी में इसी मत का अनुकरण किया है। समय के साथ उत्तरवर्ती आचार्यों ने यह सोचा कि सामान्यजन का आहार साधु के समान प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता। अतः उन्होंने अहिंसक व्रतों की धारणा प्रस्तुत की। इसके अंतर्गत आहार को नियंत्रित करनेवाली भोगोपभोग परिमाण एवं प्रोषधोपवास आदि की प्रवृत्तियां विकसित हुईं। प्रवचनसार" में तो केवल अरस, मधु और मांस रहित आहार को ही युक्ताहारी बताया है। समय के साथ, इनमें पर्याप्त कठोरता आने लगी। तब सरलता की दृष्टि से, अहिंसक दृष्टि के विकास एवं व्यवहार के लिये, हिंसामय / हिंसाजन्य खाद्यों www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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