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________________ (446) : नंदनवन आधार 2. अनेक अपक्च, अशस्त्र-परिणत एवं अप्रासुक वस्तुओं के अनेषणीय मानने का उल्लेख मिलता है, पर दिगम्बर ग्रंथों में मूलाचार के उत्तरवर्ती काल में इस मान्यता के उल्लेख नहीं हैं। इसका कारण अन्वेषणीय है। सभी प्रकार की कोटियों के अन्तर्गत विभिन्न पदार्थों का पहले श्रावक के बारह व्रतों के आधार पर भोगोपभोग परिमाण एवं प्रोषधोपवास आदि के रूप में और बाद में अष्टमूलगुण और बाइस अभक्ष्यों के रूप में वर्गीकरण किया गया है। सारणी 1 : अभक्ष्यता के आधार उदाहरण त्रसजीव घात, दो या अधिकेन्द्रिय पंच उदुंबर फल, अचार/मुरब्बा बहुघात/बहुबध, जीवों की उत्पत्ति, आदि, द्विदल, चलितरस, रात्रि . बहु-जंतु उपस्थिति से हिंसा, भोजन, मधु-मांसादि योनि-स्थान त्रस जीवों की हिंसा स्थावर जीव घात प्रत्येक/अनन्तकाल कन्दमूल, बहुबीजक, कोंपल, (अनन्तकायिक) जीवों की हिंसा अदरक, मूली, कच्चेफल, आर्द्र हरिद्रा प्रमाद/मादकतावर्धक आलस्य, उन्मत्तता, मद्य, गांजा, भांग, अफीम, चरस, पदार्थ चित्त विभ्रम तंबाकू आदि नशीले पदार्थ रोगोप्पादक/अनिष्ट स्वास्थ्य के लिये पदार्थ अहितकर अनुपसेव्यता/ लोकवि प्याज, लहसुन आदि रुद्धता अल्पकल-बहुविघात त्रस-स्थावर जीव गन्ने की गंडेरी, तेंदू, कलींदा, हिंसा कांटे एवं गूदेदार पदार्थ अपक्वता/अशस्त्र इनके कारण सभी जल आदि प्रति-हतता/अनग्नि वनस्पति सजीव एवं पक्वता अप्रासुक रहते हैं वनस्पति-हमारे प्रमुख खाद्य सामान्यतः हमारे खाद्य पदार्थों में कुछ जनित (दूध, दही, घृत आदि) तथा कुछ संगृहीत (मधु आदि) को छोड़कर अधिकांश वनस्पति या वनस्पतिज ही होते हैं। आचारांग' और दशवैकालिक में मूल, कन्द, पत्र, फल, पुष्प, बीज, प्रवाल, त्वचा, शाखा तथा स्कंध के रूप में वनस्पति की दस प्रकार की अवस्थायें बताई गई हैं। उनका रूढ़, बहुसंभूत, स्थिर, उत्सृत, गर्भित, प्रसूत एवं संसार चरणों में क्रमिक विकास होता है। आगमों एवं शास्त्रों में इन्हें प्रत्येक काय एवं अनन्तकाल (साधारण, निगोद) के रूप में वर्गीकृत किया है। इनके अन्य नाम भी हैं। इनसे कभी-कभी साधारणजन को भ्रांति भी हो जाती है। प्रत्येक काय के वनस्पतियों में एक पूर्ण शरीर में एक-जीवता पाई जाती है, जबकि अनन्तकाय कोटि में एक शरीर में अनेक-जीवता पाई जाती है। इनके शरीर के विभिन्न अंगों से नया प्रजनन HATHIPAT Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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