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वनस्पति और जैन आहार शास्त्र : (431)
- (ब) कन्दमूल के आहार के रूप में ग्रहण करने के विपक्ष में प्रबलतर तर्क उनके उखाड़ने के समय उनके चहुंओर पाये जाने वाले सूक्ष्म जीवाणुओं के पीड़न-हिंसन-जन्य सम्भावित पापबन्ध से सम्बन्धित है। इस विषय में भी यह तथ्य मनोरंजक है कि फूलों की शोभा और उपयोगिता उनके माध्यम से प्रभुपूजन-जन्य पुण्यार्जन, पुष्पहारों के माध्यम से स्वयं तथा अन्यों को सुवासित एवं सम्मानित करने तथा महिलाओं की सुषमा हेतु वेणी बनाने आदि में मानी जाती है । यद्यपि शुद्ध अहिंसकजन इसके समर्थक नहीं हैं, वे तो निर्जीव सूत्र-गुच्छ और अब तो प्लास्टिक गुच्छादि का, दीप-ज्वलन की प्रक्रिया में विद्युत बल्ब जलन के समान, उपयोग करते हैं। वे तो दूध के उपयोग का भी विरोध करते हैं- वेगन, सोसायटी इसका उदाहरण है। ये पुष्पादि विभिन्न धार्मिक एवं सामाजिक कार्यों में गरिमा लाते हैं। इनके सुवासित अवस्था में तोड़ने में भी हिंसा तो होती ही है। इनके समान ही, कन्दमूल पदार्थों की उपयोगिता भी शारीरिक स्वास्थ्य-संरक्षण और संवर्धन में विशेष है क्योंकि इनमें ऐसे घटक होते हैं जो शरीर की रोग-प्रतिकार क्षमता बढ़ाते हैं और रुग्ण को नीरोग बनाने में सहायक होते हैं, विषमय कृमियों एवं जीवाणुओं को नष्ट करते हैं। उदाहरणार्थ, प्याज में एलिल-प्रोपिल डाइसल्फाइड, अनेक लवण एवं विटामिन, लहसुन में डाइ-एलिल एवं एलिल-प्रोपिल सल्फाइड, अदरक-सोंठ में अनेक खनिज तथा औषधीय तैल, हल्दी में कयुमिन तथा सूरणकन्द में कैलसियम ऑक्जेलेट तथा आलू में सुपाच्य शर्करा के समान अनेक दोषनिवारक घटक होते हैं। यदि जीवन एवं स्वास्थ्य रक्षण के प्रक्रमों के निमित्त किये जाने वाले अल्पमात्रिक हिंसन को मान्यता न दी जाये, तो कृषि कर्म, और उसके अधिहिंसा-मूलक उत्पादों का आहरण-उपभोग भी सर्वाधिक प्रतिबन्धित होना चाहिये। यही नहीं,, प्रत्येक सांसारिक प्राणी के श्वासोच्छवास, भोजन का चयापचय, आहार, संभोग आदि सभी कार्यों में असंख्यात करोड़ सूक्ष्म जीवों (सूत्रप्राभृत, गाथा 24) पर्याप्त स्थावर और अन्य जीवों की हिंसा होती है। इसीलिये पुरुषार्थसिद्ध्युिपाय श्लोक 76-77 में कहा गया है कि गृहस्थ को अपने जीवन में प्रस-हिंसा का त्याग अवश्य करना चाहिये, स्थावर हिंसा छोड़ने में तो वह असमर्थ ही होगा। वह उसके लिये अनिवार्य है। साधु भी इससे नहीं बच सकते। हॉ, स्थावर हिंसा का भी अल्पीकरण करने का प्रयत्न करना चाहिये। वस्तुतः सचित्त के अचित्तीकरण में हिंसा है, फिर भी आत्महित एवं परहित की दृष्टि से उसे उपेक्षणीय माना गया है और ऐसे व्यक्ति को दयालु तक कह दिया गया है।
इस दृष्टि से कन्द-मूलों के उखाड़ते समय उनके चहुंओर सहचरित सूक्ष्म या स्थूल जीवों के हिंसन की पाप-बन्धकता पर विचार करना चाहिये। इस सम्बन्ध में यह अनुमान करना चाहिये कि ये जीव भूतल में ही रहते हैं
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