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________________ (414) : नंदनवन 15. कर्म और पुण्य-पाप का सम्बन्ध कर्म-सिद्धान्त के आधार पर पुण्य और पाप के बीच एक परिमाणात्मक सम्बन्ध स्थापित करने की बात सोची जा सकती है। हमें ज्ञात है कि पाप (या हिंसा), पुण्य (सुख) का विलोम होता है और कार्मिक घनत्व भी पुण्य का विलोम होता है। फलतः, यह पाप का समानुपाती होगा, अर्थात् कर्म-घनत्व (कर्म) पाप ८ हिंसा और, पुण्य c 1/पाप या, पुण्य = - पाप पुण्य + पाप = 0 चूंकि सिद्ध अवस्था में पाप = 0, फलतः पुण्य भी 0 होगा। इस आधार पर, पुण्य की इकाइयों का मान पाप की इकाइयों के समकक्ष पर ऋणात्मक होगा। यद्यपि शास्त्रों में धार्मिक कार्यों में होने वाले हिंसात्मक पाप को 'सावद्यलेशो बहुपुण्य राशिः' कहकर पुण्यार्जक कहा गया है, पर वहां न तो 'लेश' और 'बहु' शब्द की परिमाणात्मकता बताई गई है और न ही उनका सम्बन्ध ! पर इस सम्बन्ध को परोक्षतः भी अनुमानित किया जा सके, तो भी इस प्रकरण किंचित् वैज्ञानिकता भी आ सकती है। - इसके अनुसार, पुण्य-प्रकृतियां 42 हैं और पाप प्रकृतियां 82 हैं। सामान्य गणित में यह कहा जा सकता है कि एक पुण्य प्रकृति दो पाप . प्रकृतियों को उदासीन करने में सक्षम हैं। कर्म-सिद्धान्त की एक अन्य धारणा के अनुसार, पुण्य हल्का होता है और पाप या हिंसा भारी होती है। साथ ही, कर्म, पाप और पुण्य-सभी सूक्ष्म कणिकामय हैं अर्थात् भौतिक हैं। इन्हें आधुनिक भौतिक कणों के लघुतम और अल्पतम दीर्घ रूपों में व्यक्त करना तो कठिन ही है, फिर भी जैनों के अनुसार, चरम परमाणु का विस्तार और घनत्व अल्पतम होता है। इसे हम एक (जैसे हाइड्रोहन) मान लें, तो भारी कण का भार या विस्तार ऐसा होना चाहिये जिससे नीचे की ओर पतित होने की न्यूनतम क्षमता हो। यदि वाल्टर मूर के अनुसार, चरम परमाणु का विस्तार 10-13 सेमी. और द्रव्यमान 10-24 ग्रा. भी मानें, तब भी उसके घनत्व के मान को इकाई ही लेना होगा। इसका कारण यह है कि शास्त्रानुसार हिंसक नीचे नरक में जाता है और अहिंसक ऊपर स्वर्ग या मोक्ष तक जाता है। इस दृष्टि से हम लघुतम ठोस परमाणु लीथियम के समकक्ष मान लें जिसका भार हाइड्रोजन की तुलना में सात (या सातगुना भारी) होता है। इस आधार पर पुण्य और पाप का अनुपात 1: 7 भी सम्भावित है अर्थात् एक पुण्य प्रकृति सात पाप प्रकृतियों को उदासीन करने में सक्षम है। यह संकेत उपरोक्त कर्मप्रकृति पर आधारित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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