________________
कर्मवाद का वैज्ञानिक पक्ष : (405)
7. यद्यपि भाव और क्रियायें अनन्त प्रकार की होती हैं, पर उनके आठ
प्रमुख वर्ग हैं जो सभी को सुज्ञात हैं। इनमें मोहनीय कर्म सबसे प्रबल है। हमारी विभिन्न क्रियाओं और भावों की प्रकृति एवं प्रबलता उन्हें इन आठ वर्गों में परिवर्तित करती है। इन कर्मों की वर्गणायें परमाणुओं की
विभिन्न संख्याओं से निर्मित होती हैं। इन कर्मों के 148 उपभेद होते हैं। 8. इन कर्मों का अस्तित्व ज्ञान, सुख, दुःख, पद आदि की विभिन्नताओं से
सिद्ध होता है। 9. कर्मों की कणमयता (1) इनमें रूप, रसादि होने, (2) शरीर और भावों के
उत्पन्न होने और (3) दवाओं आदि से सुख-दुःख की कोटि में होने वाले
परिवर्तनों से सिद्ध की जा सकती है। 10. कर्मवाद का सिद्धान्त एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सभी जीवों पर
लागू होता है। इसका अर्थ यह है कि कर्मवाद केवल संसारी या मूर्त जीवों पर ही लागू होता है। पर इसके दो प्रमुख अपवाद हैं : 1. सिद्ध जीव 2.
नित्य निगोदी जीव। ईश्वर और भक्तिवाद पर भी यह लागू नहीं होता। 11. राग-द्वेष एवं कषाय आदि अनेक कारणों से कर्म जीव के साथ
अन्योन्य-प्रवेशी एवं एक-क्षेत्रावगाही बन्ध करते हैं। यह सजातीय तथा रक्ततप्त गोले के समान माना जाता है। कर्म बन्ध की एक चक्रीय प्रक्रिया है जो कषाय, द्रव्यकर्म, भावकर्म के माध्यम से अविरत चलती है: (पूर्वार्जित) कषाय → वर्तमान भाव कर्म → वर्तमान द्रव्य कर्म
भावकर्म (भावी) 12. भगवती में कर्मों के बन्ध का परिमाण भी बताया गया है :
कर्म- बन्ध का परिमाण = आस्रव - निर्जरा
= आस्रव (1/असंख्य - 1/अनंत) इस समीकरण की परीक्षणीयता असंख्य और अनन्त के मानों की जटिलता से सम्भव नहीं दिखती, फिर भी, यह सूत्र सही है। निर्जरा सदैव अल्प होती है, अतः कर्म बन्ध होता रहता है। जब
. आस्रव - निर्जरा तब कर्म बन्ध शून्य हो जाता है और निर्वाण प्राप्त होता है। 13. प्रत्येक कर्म और उसके उपभेदों के बन्ध की न्यूनतम और अधिकतम
स्थिति होती है। जब उसका उदय या विपाक होता है, तब यह निर्जरित होकर वातावरण में व्याप्त कर्म-परमाणुओं में मिल जाता है। यह निर्जरा तप और ध्यान आदि से द्रुततर हो जाती है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org