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________________ अध्याय कर्मवाद का वैज्ञानिक पक्ष विश्वीय घटनाओं और लौकिक जीवन के स्वरूप के निर्णय में कर्मवाद का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रारम्भ में यह व्यक्ति - कर्मता, व्यक्त्यंतर - कर्मता, कर्म - स्थानान्तर एवं समूह - कर्मता के रूप में माना गया था, पर उत्तरवर्ती काल में यह व्यक्ति-विशेषित अधिक हो गया। जैन व्यक्ति - प्रधान कर्मवाद को ही मानते हैं जबकि आज का विज्ञान व्यक्त्यंतर समूह एवं विश्वीय अन्योन्य-सम्बद्ध कर्म - व्यवस्था का पक्षधर हो रहा है । स्थानांग में भी इसके संकेत हैं। क्या कर्मवाद की मुख्य मान्यताओं को वैज्ञानिक रूप में अभिव्यक्त किया जा सकता है ? बुद्ध के आर्य-चतुष्टय के समान कर्म का भी चतुष्क है: 1. प्रकृति 2. कारण, 3. बन्ध और 4. बन्ध-व्युच्छित्ति । प्रकृति श्र - कर्म शब्द 'कृ' धातु से बना है जिससे विभिन्न प्रकार की गतियों, परिवर्तनों, स्थानान्तर तथा क्रियाओं और उनके फल ( विपाक) का बोध होता है । अनेक दर्शन इसे अभौतिक मानते हैं, पर जैन इसे सूक्ष्म, भौतिक एवं ऊर्जामय मानते हैं। सामान्य प्राणियों के लिये कर्म का अर्थ है- उनके भौतिक रूप, भावात्मक रूप, क्षमतायें तथा आचरण और व्यवहार आदि । महावीर के समय में 180 क्रियावादी मत थे। दीक्षित और ओहीरा कर्मवाद का विकास आहार / आस्रव कर्म, कृषि कर्म एवं मैथुन कर्म के समान भौतिक क्रियाओं से मानते हैं जहां क्रिया और क्रियाफल का सम्बन्ध स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। यह बुद्धिवाद के विकास के समय उत्तरवर्ती काल में आध्यात्मिक हो गया। इसके पांच गहन आधार बने : 11 1. आत्मवाद, 2. परलोकवाद, 3. क्रियाफलवाद या कार्यकारणवाद 4. स्वकर्तृत्व - भोक्तृत्ववाद 5. परिवर्तन और प्रकृतिवाद कर्म की क्रियाविधि इन्हीं आधारों पर व्याख्यायित की जाती रही है, परन्तु आजकल विज्ञान की कुछ शाखाओं से इसे समझने में काफी सरलता आ गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only पं. दलसुख मालवणिया तो इसे ईश्वरवाद के विरोध में विकसित निरीश्वरवादी सिद्धान्त मानते हैं। यह मनोवैज्ञानिकतः संतोषप्रद है और www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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