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(370) : नंदनवन
प्रकट होता है । यद्यपि ये अतिचार पशुओं के साथ किये जाने वाले व्यवहार से ही सम्बन्धित लगते हैं, पर इन्हें सभी कोटि के जीवों पर अनुप्रयुक्त करना चाहिये। इस तरह पीड़ा या मारण- दोनों ही हिंसा के रूप हैं । रत्नकरंड श्रावकाचार पुरुषार्थसिद्धयुपाय एवं सागारधर्मामृत में दी गई अहिंसा की परिभाषा अति स्पष्ट और व्यापक है। इस आधार पर, मन-वचन-काय के कृत-कारित - अनुमोदित रूपों से राग-द्वेषादि - प्रेरित षट्काय के जीवों को, त्रस जीवों को या स्थूल जीवों को पीड़ा पहुँचाना या प्राण -हरण करना हिंसा है । वस्तुतः इस प्रक्रिया में दो चरण होते हैं :
1. स्व - घात या परिणाम
2. पर - घात / परपीड़न / स्वपीड़न
परपीड़न के पूर्व स्वपीड़न / स्वहिंसा ( कषायभाव के कारण ) लगभग स्वाभाविक है । परपीड़न तो उत्तरवर्ती चरण है। फलतः
प्रमाद भाव + द्रव्य ( बाह्य) हिंसा - हिंसा की कोटि
यदि भाव हिंसा (परिणाम, संकल्प) तीव्र है, तो हिंसा की कोटि उच्चतर होगी । यदि भाव (परिणाम) मृदु हैं और बाह्य हिंसा अधिक है, तो हिंसा की कोटि भी मृदु होगी। इससे प्रतीत होता है कि भाव हिंसा और द्रव्य हिंसा एक पूर्वापरवर्ती प्रक्रम है । इसके आधार पर हिंसा का फल चार कोटियों में हो सकता है :
(1) हिंसा के पूर्व (3) हिंसा के बाद
(2) हिंसा करते समय
( 4 ) द्रव्य - हिंसा के आरम्भ (साधन)
इसका विवरण पुरुषार्थसिद्धयुपाय में देखना चाहिये। चोर की फांसी या राजा के युद्ध के समय का हिंसा-फल- विवेक भी वहां बताया गया है। ये बड़े व्यावहारिक निदर्शन हैं (देखिये श्लोक 54, 55, 56 ) ।
यद्यपि रत्नकरंड श्रावकाचार में त्रस - पीड़न को हिंसा कहा है (चर - सत्वान् ), पर अन्य ग्रन्थों में स्थावर- कायपीड़न भी हिंसा में समाहित हुआ है। इसीलिये जिनेन्द्र वर्णी' ने 'षट्काय' शब्द का उपयोग किया है। ज्ञानीजन बताते हैं कि हिंसा के मूल में अभाव, अतृप्ति या भोग (आवश्यकता पूर्ति ?) या अधिकता की भावना होती है । भय और अविश्वास की भावनायें भी हिंसा की जनक हैं ।
हिंसा के भेद और कोटि
सागारधर्मामृत की टीका में पं. देवकीनन्दन जी ने बताया है किं हिंसा के सामान्यतः 9 अंग होते हैं: 3 (योग) x 3 ( कृत-कारितादि ) = 9 पर यदि इनका विस्तार किया जाय, तो इसके 147 रूप हो सकते हैं :
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