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________________ (346) : नंदनवन गणित की भाषा में उच्चतर आत्मिक विकासी मनुष्यों के चैतन्य की कोटि में एक्सपोनेन्टी वृद्धि सम्भावित है। इसलिए यह अनन्त पर स्थिर हो जाती है। यह धारणा डा. कछारा के मत से भी मेल खाती है। यही नहीं, गुणों के गुणनफल के आधार पर पंचेन्द्रिय पशुओं की भी चैतन्य कोटि का अनुपात 1 : 3 (4.5) से बढ़कर 1 : 2.8 X 10° हो जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि पंचेन्द्रिय पशुओं का चैतन्य एक इन्द्रियों से प्रायः एक हजार गुना अधिक होता है और पंचेन्द्रिय मनुष्यों का चैतन्य एक लाख गुने से अधिक होता है। यह परिकलन यह सिद्ध करता है कि चैतन्य गुणों का प्रभाव योगात्मक नहीं, अपितु गुणात्मक होता है। इस मत को 'जैन सिस्टम इन नटशेल' (1998) में भी व्यक्त किया गया है। हमने हिंसा के परिकलन में जीवों या जीवाणुओं की संख्या पर भी ध्यान दिया है। मनुष्यों से सम्बन्धित पुण्य या अहिंसा/हिंसा के परिकलन में जीवों की संख्या क्या होगी ? सामान्यतः मनुष्य तो एक ही व्यष्टि है, अतः उसकी चैतन्य कोटि के उच्चतर होने के बावजूद भी उसकी पुण्यकर्मता का मान, हिंसा के समान ही अल्पतर होगा। पर पुण्य राशि को 'बहु' कहा गया है। वस्तुतः, पंचेन्द्रियों की हिंसा की कोटि उच्चतम मानी गई है, फलतः उसके अहिंसक कर्मों या पुण्य कर्मों की कोटि भी उच्चतर होनी चाहिये। यदि मनुष्यों की चैतन्य कोटि 10° मानी जाये और आत्मा एक मानी जाये, तो उनके पुण्य की कोटि 1.0X10° (अर्थात् एकेन्द्रिय जीवों की तुलना में एक लाख गुनी) तो मानी ही जा सकती है। इस विषय में ज्ञानीजनों के विचार अपेक्षित हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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