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________________ (344) : नंदनवन इन्द्रिय जीवों की तुलना में पंचेन्द्रिय जीवों की चैतन्य कोटि पांच गुनी ही रहती है। यह समुचित नहीं लगता है। फलतः किंचित् सूक्ष्म विचार और अपेक्षित है। हमने सारणी - 3 में सभी ज्ञान दर्शनों का अंक- संकेत बराबर माना है । यह विचारणीय है क्योंकि उच्चतर ज्ञान और दर्शन वर्धमान चैतन्य कोटि या आत्मशुद्धि के प्रतीक हैं । फलतः उनके लिये अंक संकेत कम से कम उनके क्रम पर आधारित होने चाहिए। इन अंक संकेतों के आधार पर पुनः चैतन्य कोटि के परिकलन से सारणी-4 प्राप्त होती है। इससे एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय की चैतन्य कोटि का अनुपात कुछ और अच्छा हुआ है। यह 1:10 हो गया है और गुण संख्या के आधार पर यह 4.32x102 से बढ़कर 1.06x103 हो गया है। यदि इस चैतन्य कोटि को गुणों के योग के बदले गुणनफल के रूप में परिकलित किया जाय, तो चैतन्य कोटि का अनुपात सारणी-3 के अनुसार 1:2 3x103 से बढ़कर 1:25x10 तक पहुंच जाता है। यहाँ सारणी - 4 का 1:10 का अनुपात समुचित होना चाहिये। अगुरुलघु के गुण की उपेक्षा करने पर भी यही अनुपात रहेगा। इस प्रकार, हम पंचेन्द्रिय मनुष्यों की चैतन्य कोटि 105 मान सकते हैं जो पूर्व उद्धृत अनुपातों से अधिक तर्कसंगत लगती है क्योंकि इनमें निम्न कोटि के जीवों से मात्र 10 या 102 गुने चैतन्य की अपेक्षा अधिगुणित चैतन्य पाया जाता है। यही कारण है कि पंचेन्द्रिय मनुष्यों या जीवों की हिंसा, अन्य निम्न कोटि के जीवों की तुलना में नैतिकतः दण्डनीय एवं धार्मिकतः अपराध माना जाता है। इसके विपर्यास में, पंचेन्द्रिय पशुओं की हिंसा, बिरले प्रकरणों में ही अपराध है। 1-4 इंद्रिय जीवों की हिंसा तो धार्मिक दृष्टि से ही अपराध है, नैतिक दृष्टि से उसका अधिक महत्त्व नहीं है। यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि साधु या उच्चतर मनुष्यों के लिये चैतन्य कोटि का यह मान उच्चतर होता जायेगा और सिद्धों के लिये यह अनन्त होगा। उनके गुणों में सामान्य जीव के गुणों की अपेक्षा पर्याप्त उच्चता रहती है । सारणी 2 : सारणी 3 व 4 के अंक संकेत सारणी 3 सारणी 4 ज्ञान / दर्शन मति ज्ञान श्रुत ज्ञान अवधि ज्ञान मन:पर्यय ज्ञान केवल ज्ञान मति अज्ञान श्रुत अज्ञान अवधि अज्ञान दर्शन अचक्षु दर्शन चक्षु दर्शन अवधि दर्शन केवल दर्शन Jain Education International 1 1 .1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 2 3 4 5 1 1 1 1 2 3 5 नोट : सुख घटक के लिये : सारणी (34) इन्द्रियज मानसिक 1234 प्रशमज आत्मज वीर्य घटक के लिये क्षायोपशमिक क्षायिक For Private & Personal Use Only 1 2 www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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