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अध्याय
Cons
जीवों की चैतन्य कोटि
2.9
शास्त्रों में जीव को उपयोग (चेतन, ज्ञान-दर्शन, वर्तमान कालिक अवबोध) के रूप में परिभाषित किया गया है। प्रज्ञापना 29-30 में इसमें पश्यत्ता (त्रैकालिक अवबोध) का गुण भी जुड़ा है। यदि अकलंक के राजवार्तिक, पेज 118 के अनुसार चेतना को ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य ( और पश्यत्ता) के गुणों के एक समूह के रूप में माना जाय, तो जीव का चैतन्य निम्न पांच गुणों का समाकलित रूप होगा :
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चेतना = |
ज्ञान दर्शन. सुख. वीर्य पश्यत्ता
इनमें ज्ञान के आठ प्रकार (तीन अज्ञान सहित), दर्शन के चार प्रकार तथा पश्यत्ता के नौ प्रकार ( साकार 6 अनाकार 3, क्योंकि मतिज्ञान, मति - अज्ञान तथा चक्षुदर्शन केवल वर्तमान कालिक माने गये हैं) हैं। प्रज्ञापना 29-30 में विभिन्न कोटि के जीवों के ज्ञान, दर्शन एवं पश्यत्ता की सूचना दी गई है जो सारणी-1 में दी गई है। नयच्चक में सुख के चार भेद बताये गये हैं: 1. इन्द्रियज (कायिक, वाचिक ), 2. मानसिक, 3. प्रशमज, 4 आत्मज । इसी ग्रंथ में वीर्य के भी दो भेद बताये हैं- क्षायोपशमिक (सांसारिक) एवं क्षायिक ( अर्हत् / सिद्ध) । इनमें इन्द्रियज सुख तथा क्षायोपशमिक वीर्य सभी जीवों में होता है। मानसिक व अन्य सुख पंचेन्द्रियों में होते हैं। आत्मज सुख केवल सिद्धों में होता है। क्षायिक वीर्य तो तेरहवें - चौदहवें गुणस्थान में होता है । इन गुणों के आधार पर जीवों की चैतन्य कोटि का कुछ अनुमान सारणी -1 एवं सारणी-2 में दिये गये अंक संकेतों के आधार पर सारणी 3 और 4 के अनुसार लगाया जा सकता है ।
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यहां सारणी 3 से स्पष्ट है कि पंचेन्द्रिय मनुष्यों के चैतन्य की कोटि एकेन्द्रियों की तुलना में 4.5 ( या पांच) गुनी होती है और पशुओं, देवों एवं नारकियों की मात्र तिगुनी होती है। हमें ज्ञात है कि मनुष्यों के उच्चतम चैतन्य की कोटि अनन्त होती है (मरडिया, सिद्धों की), और उनका चैतन्य एकेन्द्रियों से मात्र पांच गुना या पशुओं से मात्र 1.5 गुना मानना किंचित् अविश्वसनीय लगता है। इन जीवों की तुलना में यह मान न्यूनतम भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि सामान्य मनुष्य का चैतन्य पर्याप्त उच्च होता है । फलतः इन आनुपातिक मान को किंचित् परिवर्तित रूप में प्रस्तुत करने की आवश्यकता है।
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