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जीव की परिभाषा और अकलंक : (339)
वर्णन से प्रारम्भ कर सूक्ष्म आत्मा की ओर जाते हैं और उसके स्वरूप को सामान्यजन की बुद्धि के बाहर तथा मनोहारी बना देते हैं। भला, अभूतार्थ या असत्य से सत्य की ओर कैसे पहुॅचा जा सकता है? संसारी जीवों को यह बात पसन्द नहीं आई और कुन्दकुन्द एक हजार वर्ष तक गुप्त या लुप्त ही पड़े रहे। यह स्पष्ट है कि जीव की यह मिश्र परिभाषा दिगम्बरों द्वारा लुप्त रूप से मान्य कुछ प्राचीन ग्रन्थों से मेल खाती है यह परिभाषा "जीव" और "आत्मा" को पर्यायवाची मानने के प्राचीन युग से प्रचलित रही है। उत्तरवर्ती आचार्यों ने केवल विरोधी से लगने वाले लक्षणों की दो कोटियाँ बनाकर व्यवहारी जीव को परेशान कर दिया।
अकलंक के राजवार्तिक से जीव की परिभाषा
तत्त्वार्थसूत्र में 'जीव' शब्द का ही उपयोग है और उसी की मिश्र परिभाषा ही अनेक सूत्रों के माध्यम से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में ( 2, 1, 2, 7, 2 8, 2–53, 6.1, 8.1 - 39 ) में दी गई है जो प्राचीन ग्रन्थों के अनुरूप है। उनके प्रथम टीकाकार पूज्यपाद तो शुद्ध अध्यात्मवादी लगते हैं (यद्यपि उन्होंने भी 8.2 में जीव का व्युत्पत्तिपरक अर्थ किया है (क्योंकि उन्होनें पहले ही तत्त्वनिर्देशक सूत्र 1.4 में "चेतनालक्षणो जीव" कहकर "उपयोगी लक्षण' में भी उसे अनुसरित किया है। इसके विपर्यास में अकलंक ने प्राण धारण रूप व्युत्पत्तिपरक अर्थ के साथ चैतन्य लक्षणी जीव बताया है । तथापि लघीयस्त्रय और सिद्धिविनिश्चय में उनके चैतन्य लक्षणी जीव की परिभाषा से ऐसा लगता है कि वे अपने जीवन के उत्तरकाल में आत्मवादी अधिक हो गये होगें क्योंकि ये रचनाएँ टीकाग्रन्थों के बाद की हैं। यही नहीं, सूत्र 2.8 में उन्होंने जीव का अस्तित्व भी मिथ्यादर्शन आदि कारणों से उत्पन्न नर-नारकादि पर्यायों तथा उच्च ज्ञानियों द्वारा प्रत्यक्षता के तर्कों से सिद्ध किया है। साथ ही उपयोग के तदात्मकत्व, अस्थिरत्व एवं सम्बन्ध के आधार पर जीव लक्षण को मान्य करने वाले मतों का खंडन कर उपयोग का आत्मभूत लक्षणत्व सिद्ध किया है। उन्होने "अहं प्रत्यय, संशय, विपर्यय और अध्यवसाय के आधार पर भी जीव का अस्तित्व सिद्ध किया है। अकलंक की जीव की परिभाषा पूज्यपाद एवं वाचक उमास्वामी से व्यापक भी है क्योंकि उन्होंने चैतन्य को ज्ञान दर्शन आदि के साथ सुख-दुःख वीर्य आदि के रूप में भी माना है ।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अकलंक जीववादी भी हैं और आत्मवादी भी हैं। इसलिये उन्होंने इस प्रश्न का भी उत्तर दिया है कि आत्मा जीव कैसे हो जाता है ? उनका कथन है कि आत्मा में विशेष सामर्थ्य होती है कि वह कर्मों से सम्बद्ध होकर जीव रूप धारण करले । उसमें यह सामर्थ्य उसके अनादिकाल से कर्मबद्ध होने के कारण आती है। इस प्रकार आस्था अनादि काल से जीव मूर्तिक ही है। इसलिये उसका कर्म से प्रभावित होना
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