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________________ जीव की परिभाषा और अकलंक : (333) सर्वाधिक प्राचीन पुस्तक- आचारांग में जीव के वाचक 4 शब्द हैं-'प्राण', 'भूत', 'जीव' एवं 'सत्व' । भगवतीसूत्र और शीलांकाचार्य ने इनके जो अर्थ किये हैं, वे नीचे सारणी 1 में दिये गये हैं। भगवती 2.1 ने इनमें 2 शब्द और जोड़े हैं और बाद में जीव के 23 पर्यायवाची बताये हैं। इनमें "आत्मा" भी एक पर्यायवाची है। इसका अर्थ निरन्तर संसार-भ्रमण-स्वभावी बताया गया है (अभयदेव सूरि)। फलतः जीव का प्रारम्भिक अर्थ तो संसारी जीव ही रहा है। अन्य दर्शनों से "आत्मा" शब्द के समाहरण पर भी उसका प्रारम्भिक जैन अर्थ संसारी जीव ही रहा है, उसका अन्य अर्थ (शुद्ध जीव, जीव-कर्म आदि) उत्तरवर्ती विकास है। सारणी 1 : जीव-वाचक प्राचीन शब्दों के अर्थ शब्द भगवती शीलांक 1. प्राण दस प्राणों से युक्त 2-4 इन्द्रिय जीव (वस) 2. भूत त्रैकालिक अस्तित्व एकेन्द्रिय वनस्पति (स्थावर) 3. जीव आयुष्यकर्म एवं प्राणयुक्त पंचेन्द्रिय (त्रस) 4. सत्व कर्म-सम्बन्ध से विषादी एकेन्द्रिय पृथ्वी आदि चार (स्थावर) 5. विज्ञ खाद्य-रसों का ज्ञाता 6. वेद सुख-दुःख संवेदी 7. आत्मा सतत संसार भ्रमणी चतुर्वेदी का विचार है कि मानव के प्रारम्भिक वैचारिक विकास के प्रथम चरण में वह क्रियाकांडी एवं सामान्य बुद्धिवादी था। यह इहलौकिक जीवन को ही परमार्थ मानता था। वह वस्तुतः चार्वाक था। अपने विकास के द्वितीय चरण में मानव चिंतनशील, बुद्धिवादी, कल्पनाप्रवीण एवं प्रतिभावान बना। इस चरण में उसने आत्मवाद एवं उससे सहचरित अनेक सिद्धान्तों की बौद्धिक कल्पना की जिससे वह न केवल हिंसात्मक क्रियाकांडों से ही मुक्ति पा सका, अपितु अध्यात्मवाद के साये में उसने जीवन को अनन्त सुखमय बनाने का महान आशावादी उद्देश्य और लक्ष्य भी पाया। अपने बुद्धिवाद से उसने सामान्य-अर्थी सतत-बिहारी 'आत्मा' शब्द का ही अमूर्तीकरण नहीं किया, अपितु अनेक भौतिक प्रक्रमों एवं वस्तुओं (प्राण, इन्द्रिय, मन आदि) का भी अध्यात्मीकरण किया। इस प्रक्रिया में जीवन की घटनाओं की व्याख्या सामान्यजन के लिये दुःरवबोध हो गई। जल, थल व नभ आदि के अध्यात्मीकरण ने ऋषि-मुनियों को जो भी प्रतिष्ठा दिलाई हो, पर सामान्यजन तो परेशानी में ही पड़ा। वह आत्मवादी बने या जीववादी? आत्मवादी बनने में अनन्त सुख एवं आयु थी, जीववादी बनने में सान्त सुख एवं सीमित आयु थी। एक ओर कल्पना जगत् का आनन्द था, दूसरी ओर व्यावहारिक जगत् की आपदायें थीं। श्रमण-संस्कृति एवं उपनिषदों के उपदेष्टा साधु जीवन की श्रेष्ठता की चर्चा कर उसे उत्सर्ग मार्ग बताते थे, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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