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________________ दिगम्बर आगम-तुल्य ग्रन्थों की भाषा सम्पादन और संशोधन की विवेचना: (323) बलवान बनाएगा। इसलिए अब तक किसी भी दिगम्बर विद्वान ने इन ग्रंथों में व्याकरणीयता लाने का साहस नहीं दिखाया। इस स्थिति को समरस बनाए रखने के लिए यह अधिक अच्छा होता कि पाठ भेदों के टिप्पण दे दिये जाते । इस विरूपण की स्वैच्छिकता भी सामान्यजन की समझ से परे है । इसका उद्देश्य गहनतः विचारणीय है । 3. शब्द - भेद से अर्थ-भेद न होने की मान्यता: यदि शब्द-भेद एवं उपरोक्त प्रकार के विरूपण (या एकरूपता) से अर्थ भेद न होने की बात स्वीकार की जाये तो इस प्रक्रिया का अर्थ ही कुछ नहीं होता। इसके लिए प्रयत्न ही व्यर्थ है । जब शब्दैक्य से अर्थ-भेद हो सकता है और बीसवीं सदी में भी नया सम्प्रदाय (भेद विज्ञानी) पनप सकता है, तब शब्द-भेद से अर्थ-भेद तो कभी भी सम्भावित है । 4. प्राकृत भाषा के स्वरूप की हानि प्राकृत भाषा चाहे वह अर्धमागधी हो या शौरसेनी, जनभाषा है और उसका प्रथम स्तर का साहित्य व्याकरणातीत युग की देन है। जनभाषा के स्वरूप के आधार पर उसकी सहज बोधगम्यता के लिए उसमें बहुरूपता अनिवार्य है। यदि इसे व्याकरण - निबद्ध या संशोधित किया जाता है तो उसके स्वरूप की ओर ऐतिहासिकता की हानि होती है। क्या हम उसके सर्वजन बोधगम्य स्वरूप की शास्त्रीय मान्यता का विलोपन चाहते हैं? 23 5. दिगम्बर आगम-तुल्य ग्रंथों की भाषात्मक प्रामाणिकता की हानि: यह माना जाता है कि दिगम्बरों के आगम-तुल्य ग्रंथ पांच, छह ही हैं । अन्य ग्रंथ तो पर्याप्त उत्तरवर्ती हैं। इनकी रचना प्रथम से तृतीय सदी के बीच लगभग सौ वर्षों में हुई है । यह मान्यता विशेष आपत्तिजनक नहीं होनी चाहिए। इनकी भाषा के विषय में डा. खडबडी ने षट्खण्डागम के संदर्भ में उसे बड़ी मात्रा में शौरसेनी भागक बताया है, 22 शुद्ध शौरसेनी नहीं। उन्होंने उसके शौरसेनी -अंग के गहन अध्ययन का सुझाव भी दिया है। डॉ. राजाराम भी यह मानते हैं कि शिलालेखों और अभिलेखों में क्षेत्रीय प्रभाव मिश्रित हुए हैं फलतः उसका व्याकरण- निबद्ध स्वरूप कैसे माना जा सकता है? भाषा - विज्ञानी तो उन प्राचीन अभिलेखों की प्राकृतों में शौरसेनी का अल्पांश ही मानते हैं 24 । यही स्थिति कुन्दकुन्द के साहित्य की भी है। यदि उपलब्ध कुन्दकुन्द साहित्य की भाषा अत्यन्त भ्रष्ट और अशुद्ध है तो तत्कालीन अन्य ग्रंथों की भाषा भी तथैव सम्भावित है। इसके अनेक शब्दों को खोटा सिक्का तक कहा गया है। इससे जिस प्रकार कुन्दकुन्द के ग्रंथों की स्थिति बन रही है उसी प्रकार समस्त दिगम्बर आगम-तुल्य ग्रंथों की स्थिति भी संकटपूर्ण, अप्रामाणिक और अस्थायी हो जायेगी। इससे जैन - संस्कृति की दीर्घजीविता का एक आधार भी समाप्त हो जायेगा । डॉ. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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