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________________ दिगम्बर आगम-तुल्य ग्रन्थों की भाषा : सम्पादन और संशोधन की विवेचना : (321) कहना सुसंगत नहीं लगता कि जैन-सिद्धान्त अर्थ की एकरूपता पर आधारित है और किसी के शब्द-भिन्न-करण से उस पर कोई असर नहीं पड़ता। एवंभूत नय की दृष्टि से यह मान्यता मेल नहीं खाती। फिर, शब्द-भेद ही तो प्राचीन समय से अर्थ-भेद और स्थूल से सूक्ष्म या विपर्यय दिशा में जाने का कारण रहा है। इसी कारण जैन संघ का घटकीकरण हुआ। क्या यह शौरसेनीकरण भी एक नये घटक का जनक सिद्ध होगा? . पुनश्च, सम्पादित संस्करण के सामान्य अवलोकन से यह पता चलता है कि भाषिक एकरूपता के नाम पर व्याकरण एवं छन्द के आधार पर उचित एवं ग्रन्थकार-अभिप्रेत जो शौरसेनीकरण हो रहा है, वह पूर्ण नहीं है, आदर्श नहीं है, स्वैच्छिक है। इसके अनेक उदाहरण पद्मचन्द्र शास्त्री ने अपने लेखों में दिया है। उदाहरणार्थ- 'पुग्गल' को तो 'पोग्गल' किया गया है पर 'ओत्संयोगे' का नियम 'चुविकज्ज, वुच्चदि' आदि पर लागू नहीं किया गया है। फलतः इस स्वैच्छिकता का आधार अज्ञात है। क्या ओशो के समान सम्पादक महोदय भी कुन्दकुन्द की रूह से प्लेंचेट माध्यम से शब्द विवेक प्राप्त कर लेते हैं ? साथ ही, सम्पादन में प्राकृत में 'बहुलम्' को तो प्रायः उपेक्षणीय ही मान लिया गया है। "मुन्नडि' में प्राकृत भाषा के क्रमिक विकास में कुन्दकुन्द के ग्रन्थों को इतिहास और काल की दृष्टि से सहायक मानते हुए भी सम्पादक उसे उत्तरवर्ती व्याकरणों के आधार पर सम्पादित करते हुए क्या अपने ही कथ्य के विरोध में नहीं जा रहे हैं? और क्या संस्कृत निबद्ध प्राकृत व्याकरण व्याकरणातीत जनभाषा साहित्य पर लागू किए जा सकते हैं ? यह शौरसेनीकरण मुख्यतः बारहवीं सदी के आचार्य के प्राकृत व्याकरण के आधार पर किया गया लगता है। यह आश्चर्य है कि पहिली-दूसरी सदी के ग्रन्थों का भाषिक स्वरूप बारहवीं सदी के ग्रन्थों के आधार पर स्थिर किया जाय? यदि कुन्दकुन्द के किसी पूर्वकालीन व्याकरण के आधार पर ऐसा किया जाय, तो यह प्रकरण अधिक विचारणीय हो सकता था। वर्तमान सम्पादन से उत्पन्न प्रश्न चिन्ह कुन्दकुन्द के ग्रंथों के सम्पादन के नाम से अर्धमागधी के शुद्ध शौरसेनीकरण की भाषिक परिवर्तन की प्रक्रिया ने विद्वत् जगत् में बौद्धिक विक्षोभ उत्पन्न किया है। सम्भवतः यह 1980 के प्रारम्भ में सामान्य था, पर अब यह अप-सामान्य होता लगता है। इस प्रक्रिया ने अनेक प्रश्नों और समस्याओं को जन्म दिया है जिनके समाधान की अपेक्षा न केवल विद्वत् जन को अभीष्ट है, अपितु श्रद्धालु जगत् भी अंतरंग से उनकी उपेक्षा करता है। इस दृष्टि से निम्न बिन्दु सामने आते हैं : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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