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________________ दिगम्बर आगम-तुल्य ग्रन्थों की भाषा : सम्पादन और संशोधन की विवेचना : (319) अंशों के रूप में जीवन्त मानी गई) तो आगमकाल 777 या 718 ई. पूर्व तक भी माना जा सकता है। यह आगम अर्धमागधी प्राकृत में थे, यह शास्त्रीय धारणा है। इसकी शास्त्रोल्लिखित प्रकृति भी स्पष्ट है। सम्भवतः आज की चर्चा इस लुप्त आगम की भाषा से सम्बन्धित नहीं है। यह चर्चा उन ग्रंथों की भाषा से सम्बन्धित है जो दिगम्बरों में वर्तमान में आगम तो नहीं, आगम-तुल्य के रूप मे मान्य हैं। इनको आगम या परमागम कहना किंचित् विद्वत्-विचारणीय बात हो सकती है। पौराणिक अतिशयोक्तियों के विश्लेषण के युग में बीसवीं सदी की ये अतिरंजनाएँ हमारे वर्तमान को भूत बना रही हैं। ये कह रही हैं कि हम वर्तमान जीवन को भूतकालीन जीवन्तता देना चाहते हैं। यह शायद ही सम्भव हो। __ इन ग्रंथों में कषायपाहुड़, षट्खडागम्, कुन्दकुन्द की ग्रंथावली, भगवती-आराधना, मूलाचार आदि आते हैं। इनका रचानाकाल अनादि है, पर भाषात्मकता, यह 156-215 ई. के आसपास ठहरती है। यह काल महावीर से 683 वर्ष के बाद ही आता है। (अनेक लोग इस काल को 683 वर्ष के अन्तर्गत भी मानते हैं, पर यह श्रद्धामात्र लगता है) महावीरोत्तर सात-सौ वर्षों में अर्धमागधी प्राकत में क्या परिवर्धन-संवर्धन हए, यह विवेच्य विषय अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इस विवेचन से ही इनकी भाषा की प्रकृति निर्धारित करना सम्भव हो सकेगा। भाषा-विज्ञानियों के अनुसार, इस समय-सीमा में प्राकृत भाषा अपने विकास के द्वितीय स्तर के तीन चरणों में से प्रथम चरण पर रही है जैसा कि पहले कहा गया है। इस चरण में प्राकृत हमें अनेक रूपों में मिलती है-शिलालेखी प्राकृत, जातकों की पालि- प्राकृत, जैनागमों आदि आगम-तुल्य ग्रन्थों की प्राकृत एवं नाटकों की प्राकृत। यह भाषा कथ्य के समान प्राचीन नहीं है। समय के साथ उसके रूप, ध्वनि, शब्द और अर्थ निश्चित हुए हैं जिससे उसकी नवीन प्रकृति का अनुमान लगाया जाता है। इससे प्राकृत और साहित्यिक प्राकृत में अन्तर भी प्रकट होता है और एक चकीय भाषिक प्रक्रिया का अनुमान भी लगता है : प्राकृत भाषा → साहित्यिक प्राकृत → नयी जनभाषा → नयी साहित्यिक भाषा → नयी जनभाषा प्राकृत........ यह प्रक्रिया ही भाषा के विकास के इतिहास को निरूपित करती है। इस प्रथम चरण की समय सीमा में प्राकृत उपभाषाओं में भेद प्रकट नहीं हुए थे। भाषा में एकरूपता एवं अर्धमागधी स्वरूपता बनी रही । फिर भी, वर्तमान आगम-तुल्य ग्रंथों की अर्धमागधी के स्वरूप में महावीर कालीन सर्वभाषामय स्वरूप की तुलना में कुछ परिवर्तन तो आया ही होगा। अब इसमें मुख्यतः मागधी और शौरसेनी का मिश्रण है। फिर भी, यह जनभाषा है - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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