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________________ (310) : नंदनवन 17. उमास्वाति के पूर्व 'प्रमाण' की चर्चा विलुप्त-सी थी, उमास्वाति ने इसे 'ज्ञानं प्रमाणं' से प्रारम्भ किया । 18. हमने अर्धफालक और यापनीय सम्प्रदायों को अपने गर्भ में समाहित किया जिनके अनेक सिद्धान्त मूल परम्परा से मेल नहीं खाते । ये सैद्धान्तिक मान्यताओं में परिवर्तन के कुछ निरूपण हैं । गहेन अध्ययन करने पर ऐसे ही अनेक परिवर्तन और प्राप्त हो सकते हैं। इन मान्यताओं के समान आचारगत मान्यताओं में भी परिवर्तन हुआ है। इनके कुछ उदाहरण नीचे दिये जा रहे हैं । आचारगत मान्यतायें 1. साधुओं के मूल गुण : यह सुज्ञात है कि वर्तमान णमोकार मन्त्र क्रमशः एक पदी, द्विपदी, त्रिपदी के माध्यम से पंचपदी में विकसित हुआ है। त्रिपदी में अरिहन्त, सिद्ध एवं साधुपद ही था। सम्भवतः अन्य परम्पराओं के प्रभाव से उत्तरवर्ती काल में इसमें आचार्य और उपाध्याय पद जुड़े हैं। ये साधु के ही गुणकृत कोटि के भेद हैं। प्रारम्भ में 'मूलगुण' शब्द से साधुओं के ही मूलगुणों का अर्थ लिया जाता था। श्रावकों के मूलगुणों की धारणा का विकास तो उत्तरवर्ती है। साधुओं के मूलगुणों की संख्या 18, 25, 27, 28 एवं 36 की बीच पाई गई है जो समवायांग से लेकर अनगार-धर्मामृत के समय के बीच की है । 2. श्रावक के आठ मूलगुण : कुछ विद्वान समन्तभद्र की मूलगुणी गाथा को प्रक्षिप्त मानते हैं। फलतः उनके 12 व्रतों का विवरण तो आगमों में मिलता है, पर उनके मूलगुणों का वर्णन सम्भवतः दसवीं सदी से ही प्रारम्भ हुआ है। इनमें भी आशाधर ने 3 परम्परायें बताई हैं। इनमें परिवर्धन एवं विस्तारण-दोनों प्रक्रियायें समाहित हुई हैं। 3. साधुओं के स्वाध्याय का समय : यह एक बार में 4 घड़ी से लेकर 11 घड़ी तक का होता है । लौकिक विधि की प्रमोणता : जैन इतिहास के विकट क्षणों में जिनसेन और सोमदेव ने जैनों के परिरक्षण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। हमने उनके निम्न श्लोकगत उपदेश को स्वीकृत किया। 'सर्वमेव हि जैनानां, प्रमाणं लौकिकी विधिः । यत्र सम्यक्तवहानिर्न, यत्र न व्रतदूषणं ।।। इसके फलस्वरूप अनेक नई परम्परायें जैनों में आई । इनमें से कुछ पर आज प्रश्न खड़े किये जा रहे हैं । इनका उद्भव शास्त्रीय या आगमिक आधार पर न भी हुआ तो, पर ऐतिहासिक कारणों से तो हुआ ही है । इनसे निवृत्ति पाना कठिन ही प्रतीत होता है। भट्टारक प्रथा, यक्ष-यक्षी-पूजन, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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