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नोकर्मवर्गना को केवली कै है आहार
थितिकारक है जो न सविकार है।।२२।।
दोहराऔर जीव को लगत नहि
तनपोषक सुखदाइ। समय समय जगदीप कौं
लगै वरगना आइ।।२३।।
छपयक्षुधा त्रिषा भय दोष रोग जर मरण जनम मद
मोह खेद परसेद नीद विस्मय चिंता गद
रति विषाद। ए दोष नहि अष्टदश जाकै केवलग्यान अनंत
दरसन सुख वीरज तामै नहि सपत
धातु।। सब मल रहित परमौदारिक तन सहित अंतर अनंत
सुख रस सरस सौ जिनेस मुनि पति सहित ।।२४।।
दोहराजिहां आहार बनै नहीं
तहां क्यौं होइ निहार। परगट दूषन देखियै
इसमें कौन विचार ।।२५।। कलपि विकलपी कहतु है
और दोष विकराल। निर्मल केवलिनाथ के
है निहार मलजाल ।।२६।।
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