SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 26 जबकि समर्पण और अभय उसे जोड़ते हैं। समर्पण का भाव आता है अनासक्ति से या निर्ममत्व से और अभय आता है हिंसा में पूर्ण निष्ठा से। वैचारिक सहिष्णुता का आधार - अनेकान्त दृष्टि : सेसम्बन वर्तमान युग में वैचारिक संघर्ष अपनी चरम सीमा पर है। सिद्वान्तों के नाम पर मनुष्य "मनुष्य के बीच भेद की दीवारें खींची जा रही है। कहीं धर्म के का नाम पर तो कहीं राजनैतिकवाद के नाम पर एक दूसरे के विरुद्ध विषवमन किया जा रहा है। धार्मिक एवं राजनैतिक साम्प्रदायिकता जनता के मानस को उन्मादी बना रहा है। प्रत्येक धर्मवाद या राजनैतिकवाद अपनी सत्या का दावा कर रहा है और दूसरे को भान्त बता रहा है। इस धार्मिक एवं राजनैतिक उन्माद एवं असहिष्णुता के कारण मानव मानव के रक्त का प्यासा बना झा है। आज प्रत्येक राष्ट्र का एवं विश्व का वातावरण तनावपूर्ण एवं विक्षुब्ध है। एफ ओर प्रत्येक राष्ट्र की राजनैतिक पार्टियां या धार्मिक सम्प्रदाय उसके आन्तरिक वातावरण को विक्षुब्ध एवं जनता के पारस्परिक सम्बन्धों को तनावपूर्ण बनाये हुए है तो दूसरी ओर राष्ट्र अपनी सी निष्ठा से किसीमा गुट बना रहे हैं. और इस प्रकार विश्व के वातावरण को तनावपूर्ण एवं विक्षुब्ध बना रहे हैं। मात्र इतना ही नहीं यह वैचारिक असहिष्णुता, सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन को विषाक्त बना रही है। पुरानी और नई पीढ़ी के वैचारिक विरोध के कारण आज समाज और परिवार का वातावरण भी अशान्त और कलहपूर्ण हो रहा है। वैचारिक आग्रह और मतान्धता के इस युग में एक ऐसे दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो लोगों को आग्रह और मतान्धता से ऊपर उठने के लिए दिशानिर्देश दे सके। भगवान बुद्ध और भगवान महावीर दो ऐसे महापुरुष हैं जिन्होंने इस वैचारिक असहिष्णुता की विध्वंसकारी शक्ति को समझा था और उससे बचने का निर्देश दिया था। भगवान् बुद्ध ने इस आग्रह एवं मतान्धता कसे ऊपर उठने के लिए विवाद पराइ. मुखता को अपनाया। सुत्त-निपात में वे कहते हैं कि मैं विवाद को दो पल बताता हूं। एक तो वह अपूर्ण व एकांगी होता है और दूसरे कलह एवं अशान्ति का कारण होता है। अतः निर्माण को निर्विवाद भूमि समझने वाला साधक विवाद में न पड़े। उनके अनुसार अनासक्त पुरुष के पास विवाद रूपी युद्ध के लिए कोई कारण ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006502
Book TitleKeynote Address of Dr Sagarmal Jain at Calcutta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahadeolal Saraogi
PublisherMahadeolal Saraogi
Publication Year
Total Pages72
LanguageEnglish
ClassificationBook_English, Philosophy, & Religion
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy