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था, किन्तु हमें उते विद्रोह केरूप में नहीं, अपितु भारतीय संस्कृति के परिस्कार के रूप में ही समझना होगा। जन और बौद्ध धर्मों ने भारतीय संस्कृति में आ रही विकृतियों का परिशोधन कर उसे स्वस्थ बनाने हेतु एक चिकित्सक का कार्य किया और चिकित्सक कभी भी शत्र नहीं, मित्र ही होता है। दुर्भाग्य से पाश्चात्य चिंतकों के प्रभाव से भारतीय चिन्तक और किसी सीमा तक कुछ जैन एवं बौद्ध चिन्तक भी यह मानने लगे हैं कि जैन धर्म और वैदिक (हिन्दू) धर्म परस्पर विरोधी धर्म है किन्तु यह एक भांत अवधारणा है चाहे अपने मूल रूप में वैदिक एवं श्रमण संस्कृति-प्रवर्तक और निळक धर्म परम्पराओं के रूप में भिन्न-भिन्न रही हो किन्तु आज न तो हिन्दू परम्परा ही उस अर्थ में पूर्णत : वैदिक है और न ही जैन व बौद्ध परम्परा पूर्णत : श्रमण। आज चाहे हिन्दू धर्म हो, अथवा जैन और बौद्ध धर्म हों, ये सभी अपने मान स्वरूप में वैदिक और श्रमण संस्कृति के समन्दिा स्प हैं। यह बात अलग है कि उनमें प्रवृत्ति और निवृत्ति में से कोई एक पक्ष अभी भी प्रमुख हो, उदाहरण के रूप में हम कह सकते हैं कि जहां जन धर्म आज भी निवृत्ति प्रधान है वहां हिन्दू धर्म प्रवृत्ति प्रधान। फिर भी यह मानना उचित नहीं है कि जन धर्म में प्रवृत्ति के एवं हिन्दू धर्म में निवृत्ति के तत्व नहीं है। वस्तुत: सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति प्रवृत्ति और निवृत्ति के समन्वय में ही निर्मित हुई है। इस समन्वय का प्रथम प्रयत्न हमें ईशावास्योपनिषद में स्पष्टरूप से दृष्टिगोचर होता है। आज जहां उपनिषदों को प्राचीन भ्रमण परम्परा के परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता है, वहीं जन और बौद्ध परम्परा को भी औपनिषदिक परम्परा के परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यक्ता है। जिस प्रकार वासना और विवेक, श्रेय और प्रेय, परस्पर भिन्न-भिन्न होकर भी मानव व्यक्तित्व के ही अंग है उसी प्रकार निवृत्ति प्रधान प्रमणधारा और प्रवृत्ति प्रधान वैकि धारा दोनों भारतीय संस्कृति के ही अंग हैं। वस्तुत: कोई भी संस्कृति एकान्त निवृत्ति या एकान्त प्रवृत्ति के आधार पर प्रतिष्ठित नहीं हो सकती है। जैन और बौद्ध परम्परायें भारतीय संस्कृति का वैसे ही अभिन्न अंग है, जैसे हिन्दू परम्परा। यदि
औपनिषदिक धारा को वैदिक धारा से भिन्न होते हुए भी वैदिक या हिन्दू परंपरा का अभिन्न अंग माना जाता है,तो फिर जैन और बौद्ध परम्पराओं को उसका अभिन्न
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