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________________ ७७५ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १३ चित्र-संभूतचरितवर्णनम् मृत्युमुखे पतितं परत्र च दुःखाभिहतं जीवं स्वजनादयो न त्रातुं समर्था इति स दृष्टान्तमशरणभावनामाह मूलम्जहे है सीहो व मियं गहाय, मच्चू णरं णेई हूँ अंतकाले । तस्स माया पियों व भौया, कालेम्मि तम्मं संहराभवंति॥२२॥ छाया-यथेह सिंहो वा मृगं गृहीत्वा, मृत्युनर नयति हु अन्तकाले । न तस्य माता वा पिता वा भ्राता, काले तस्मिन्नंश हरा भवन्ति ॥२२॥ टीका-'जहे ह' इत्यादि यथा इहलोके सिंहो मृगं गृहीत्वाऽन्तं नयतीति शेषः, तथा मृत्युरन्तकाले समय जब कि मनुष्य पर्याय में था, तब धर्म क्यों नहीं किया। इस लिये हे चक्रवर्ती मैं आप से कहता हूं कि पीछे पश्चात्ताप करने का अवसर न आवे इसलिये आप चारित्र धर्मको धारण करो। इसीसे आपको मुक्तिकी प्राप्ति होगी ॥२१॥ यह जीव जिस समय मृत्युके मुख में पड़ जाता है तथा परलोक में जब दुःखी होता है तब इसकी रक्षा करने वाला वहां कोई भी स्वजन समर्थ नहीं होता है-यह बात मुनिराज दृष्टान्त देकर समझाते हैं'जहेह' इत्यादि। अन्वयार्थ (जहा-यथा) जैसे (इह) इस संसार में (सीहो-सिंहः) सिंह (मियं गहाय इ-मृगं गृहीत्वा नयति) मृगको पकड़कर ले जाता है-और उसको मार डालता है-वहां उसकी रक्षा करनेवाला कोई नहीं होता है उसी तरह (अंतकाले अन्तकाले ) मृत्युके अवसर में (मच्चूમનુષ્ય પર્યાયમાં હતા ત્યાં ધર્મ કેમ ન કર્યો. આ માટે તે ચક્રવતી ! હું આપને કહું છું કે, પછીથી પશ્ચાત્તાપ કરવાને અવસર ન આવે આ માટે આપ ચારિત્ર ધમને ધારણ કરે. એનાથી આપને મુક્તિની પ્રાપ્તિ થશે. ૨૧ આ જીવ જ્યારે મૃત્યુના મુખમાં ઝડપાય છે તથા પરકમાં જ્યારે દુઃખી થાય છે ત્યારે એની રક્ષા કરનાર ત્યાં કઈ પણ સ્વજન સમર્થ બની શકતું નથી. આ વાત મુનિરાજ દ્રષ્ટાંત દઈને સમજાવે છે. "जह "-त्यादि। मन्वयार्थ-जहा-यथा रेभ इह २ संसारमा सीहो-सिंहः सि मियं गहाय णेइ-मृगं गृहीत्वा नयति भृशमान ५४ी. लय छे मन भारी नाये छ त्यारे त्यांनी २६॥ ४२ना२ डा नथी. मे४ रीते अंतकाले-अन्तकाले ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૨
SR No.006370
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages901
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size49 MB
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