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प्रियदर्शिनी टीका अ० १२ हरिकेशबलमुनिचरितवर्णनम् ___ पञ्चभिः संवरैः प्राणातिपातविरमणादिरूपैः सुसंवृताः स्थगिताश्रवद्वारा, इह-अस्मिन् जन्मनि, उपलक्षणत्वात्परजन्मनि च जीवितम् असंयमजीवितम् अनवकाङ्क्षन्तोऽनभिलषमाणाः, अतएव-व्युत्सृष्टकाया-मुत्सृष्टः कायो यैस्ते तथा, परीषहोपसर्गसहने शरीरविनाशचिन्तारहिताः, तथा-शुचित्यक्तदेहा:-शुचयोऽनतिचारस्वताः, त्यक्तदेहा:-त्यक्तो-निष्पतिकर्मतया त्यक्त इव देहो यैस्ते शुचयश्च ते त्यक्तदेहाश्चेतिकर्मधारयः, एतादृशामुनयो महाजयं महान् जयः कर्मशत्रुपराजयरूपो यस्मात्स तं तथा, अनन्तसंसारवर्द्धक कर्मशत्रविनाशकर यज्ञश्रेष्ठम् सर्वयज्ञापेक्षया महत्तमं यज्ञं यजन्ति । आदि पांच प्रकारके संवरों से ( सुसंवुडा-सुसंवृताः ) जिन्होंने कर्मों के आगमनरूप द्वारको बंद करदिया है, तथा (इह) इस सांसारिक (जीवियं अणवकंखमाणा-जीवितं अनवकांक्षन्तः ) असंयम जीवन को जो नहीं चाहते हैं इसी लिये (वोसहकाया-व्युत्सृष्टकायाः ) जिन का शारीरिक ममत्व परीषह एवं उपसर्गों के आने पर भी जागृत नहीं हो सकता है-परीषहादिक के आने पर भी जो शरीर के विनाश की चिन्ता से रहित रहते हैं, और इसी लिये जो (सुइचत्तदेहा-शुचि त्यक्तदेहाः ) शुचिअतिचाररहित व्रतों को पालन करने में विशेष उल्लासयुक्त रहा करते हैं, तथा निष्प्रतिकर्म होने से देहको जिन्होंने छोड़ा हुआसा कर रक्खा है ऐसे मुनिराज (महाजयं जन्नसिट्ठ-महाजयं यज्ञश्रेष्ठम् ) कर्मशत्रुओंके महान् पराजयकारक यज्ञ श्रेष्ठ को-सर्व यज्ञों की अपेक्षा महत्तम यज्ञको (जयइ-यजन्ति) किया करते हैं। ऐसा यज्ञ ही पापक के अपनोदन-दर करनेमें समर्थ है । तत्वके ज्ञाता विद्वान ऐसे ही यज्ञको सुयज्ञ कहते हैं। पाय ५४॥२॥ सपशेथी सुसंवुडा-सुसंवृताः भणे भाना सामन३५ हारने मशीया छ. तथा इह-इह मा सांसारि४ जीवियं अणवकंखमाणा-जीवितं अनवकांक्षन्तः असंयम बनने रे यात नथी. २मा २ वोसटुकायाव्युत्सृष्टकायाः रमनु शारी: भमत्व परीष मन ५सगौना मावाथी ५६ જાગૃત નથી બનતું-પરીષહાદિકના આવવાથી પણ જે શરીરના વિનાશની थिताथी डित २७ छ भने थे ॥२२२ सुइ चत्तदेहा-शुचि त्यक्तदेहा शुथि. અતિચાર રહિત વ્રતનાં પાલન કરવામાં વિશેષ ઉલ્લાસયુક્ત રહ્યા કરે છે તથા નિપ્રતિકર્મ હોવાથી દેહને જેઓએ છેડી દીધા સમાનજ માને છે मेवा मुनिरा महाजयं जन्नसिटुं-महाजयं यज्ञश्रेष्ठम् में शत्रुभाना महान ५४य ४।२४ यज्ञश्रेष्ठने-सप यज्ञानी अपेक्षा महत्तम यज्ञने जयइ-यजन्ति यो रे છે. એવા જ પાપ કર્મોને નાશ કરવામાં સમર્થ છે. તત્વને સંપૂર્ણપણે
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૨