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________________ प्रियदर्शिनीटीका अ० १२ हरिकेशवलमुनिचरितवर्णनम् ५९३ तेषु वेदेषु परमार्थतत्वस्य सझावान तेषां भाररूपतो, अतो वयं न भारधराः, पुनर्यस्त्वमस्मान् ‘भारधराः' इति कथयसि, तत्तवाज्ञानविलसितमेवेति चेत्ते बेयुस्त उच्यते' 'अटुं' इत्यादि-हे ब्राह्मणाः ! यूयं वेदान् ऋग्वेदादीन अधीत्यापि अर्थवेदेषु यत्र कुत्राऽप्यप्राधान्येन स्थितं परमार्थतत्त्वरूपमर्थ न जानीथ । यदि यूयं वेदार्थविदः स्युस्तर्हि "मा हिंस्यात्-सर्वांभूतानि " इति वेदवाक्यमधीयाना अपि कथं हिंसामये यज्ञे प्रवृत्तास्युः, अत एव वेदार्थज्ञत्वाभावान्न यूयं वेद विद्या संपन्नाः। एवं जातिविद्योभयाभावान्न यूयं पुण्याङ्करमरोहयोग्यानि क्षेत्राणि । आप सब एक तरह से भारवाहक ही हैं। इस पर यदि वे कहे कि वेदों में पारमार्थिक अर्थ नहीं है सो यह बात नहीं है पारमार्थिक अर्थ भी वहां है, इसलिये आप हमें भारवाहक क्यों कहते हैं । इस प्रकार आप का यह कहना आपकी अज्ञानता का द्योतक हो सकता है-सो इस प्रकार की आशंका का समाधान सूत्रकार आगे के पदों द्वारा करते हुए करते हैं। 'अटुं'-इत्यादि । हे ब्राह्मणों ! आप लोगों ने यद्यपि ( वेए अहिज्ज - वेदान् अधीत्य) वेदों का अध्ययन किया है तो भी ( अटुं न जाणाहअर्थ न जानीथ ) ऋग्वेदादिकों में यत्र कुत्रचित् स्थलों में छिपे हुए अर्थ को-पारमार्थिक तत्त्व को आप लोग जानते नहीं है। यदि जानते हो तो " मा हिंस्यात् सर्वभूतानि " किसी भी जीव को मत मारो इस वेदमंत्र का अध्ययन करके भी जाप लोग क्यों इस हिंसामय यज्ञ-कर्म में प्रवृत्तियुक्त हो रहे हो ?। इससे यह कहा जा सकता है कि आप लोग આ ઉપર જે કદાચ તેઓ એમ કહે કે, વેદમાં પારમાર્થિક અર્થ નથી તે એ વાત બરાબર નથી. વેદોમાં પારમાર્થિક અર્થ છે જ. આ કારણે તમે ભારવાહક અને કેમ કહે છે. આ પ્રકારે આપનું કહેવું આપની અજ્ઞાન તાનું જ કારણ માત્ર છે. આ પ્રકારની આ શંકાનું સમાધાન સૂત્રકાર આગजना पहे। द्वारा ४२di ४ छ-" अटुं" ध्या ! के प्राणी ! ५ बाये वेए अहिज्ज - वेदान् अधीत्य वेहानु मध्ययन ४२० त ५५ अठं न जाणाह - अर्थ न जानीथ वे આદિમાં યત્ર કુત્રચિત્ (જે તે સ્થળે) સ્થળમાં છુપાયેલા અને પારમાર્થિક तपने भा५ । angan ना. हाय ता डात त " मा हिंस्यात् सर्व भूतानि" ने भा२। नही मत्र अध्ययन ४२१छतi પણ આપ લોક આ હિંસામય યજ્ઞ કરવામાં શા માટે પ્રવૃત્ત બની રહ્યા છે ? उ०७५ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૨
SR No.006370
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages901
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size49 MB
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