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________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० १० गौतम प्रति सुधर्मस्वामिनउपदेशः ५०७ इति लुप्तप्रथमान्तर्निर्देशः, मार्गः-मार्गरूपः मुक्तिनगरं प्रतीति भावः । देशितः कथितः । अयमाशः-सम्पति जिनो न दृश्यते, तदुपदिष्टस्तु मार्गों दृश्यते, ईदृशः पन्था अतीन्द्रियार्थदर्शिनं जिनं विनाऽन्येनोपदेष्टुमशक्यः" इति विभाव्य भविष्यकाले भव्याः सम्यक्त्वमुपलभ्य प्रमाद न करिष्यन्तीति । अतः सम्पति इदानी, मयि विद्यमाने हे गौतम ! नैयायिके न्यायानुगते-निश्चयेन मोक्षपापके पथिमार्गे, समयमा प्रमादये मोक्षमार्गसेवने समयमात्रयपि केवलानुत्पत्तितः संशयकरणेन प्रमादं मा कुर्या इत्यर्थः। ___ यद्वा-श्रुतस्य त्रिकालविषयत्वात् भाविभव्योपदेशं कुर्वन गौतममप्युपदिप्रमाद मत करो । अर्थात् 'अभी तक मुझे केवलज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो रही है, सो यह अब उत्पन्न होगा या नहीं" इस प्रकार संशय करके तुम प्रमाद मत करो। मार्ग दो प्रकार का है-एक द्रव्यमार्ग और दूसरा भावमार्ग- नगरादिकका रास्ता द्रव्यमार्ग एवं मुक्तिका रास्ता भावमार्ग है। यहां भावमार्गका ग्रहण किया गया है। "मार्गदेशितः" यहां मार्ग शब्द भावप्रधानरूपसे निर्दिष्ट हुआहै। जिसका तात्पर्य यह है कि जिसका तिर्थकरने मुक्ति का मार्गरूप से निर्देश किया है ऐसा सम्यग्ज्ञान दर्शन चारित्ररूप ही मार्ग मोक्ष का मार्ग है । अथवा मुक्ति नगर के प्रति यही मार्गरूप है ऐसा तीर्थंकर भगवान ने जो बतलाया है वह “ मार्गदेशितः" का अर्थ है । इस पक्ष में मार्ग भावप्रधान रूप से निर्दिष्ट नहीं माना गया है ॥१॥ दूसरा अर्थ इसका यह भी होता है कि श्रुत का त्रिकाल विषय होने से अर्थात् किसी भी कालमें विच्छेद नहीं होनेसे भावि-भविष्यमें जन्म “હજી સુધી મને કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત થયું નથી. તે હવે તે કેવળજ્ઞાન મને પ્રાપ્ત થશે કે નહી એ સંશય સેવીને તમે પ્રમાદ ન કરે. માર્ગ બે પ્રકારના હોય छ-(१) द्रव्यमान मन (२) मामा मडिभापमानवात यावे छे. नगराहिना २स्तान द्रव्यमा ४ छे. "मार्गदेशितः" मडी मार्ग साप्रधान३३ વપરાય છે. તેને ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે–તીર્થકરે જેને મુકિતના માગરૂપે દર્શાવ્યો છે એ સમ્યગ્રજ્ઞાન દર્શન ચારિત્રરૂપ માર્ગ જ ક્ષમાર્ગ છે. અથવા સૂક્તિનગર તરફ દોરી જતે એ ધોરી માર્ગ છે એવું તીર્થકર ભગવાને જે मतायुछे ते " " मार्गदेशितः " नी म छ. सेष्टि विया२ शये તે “માગ’ શબ્દને ભાવપ્રધાન રૂપે નિર્દેશ થયે નથી છે 1 છે તેને બીજો અર્થ એ પણ થાય છે કે શ્રત ત્રિકાલ સ્થાયી હોવાથી તેને કઈ પણ કાળે વિચ્છેદ થતું ન હોવાથી ભાવિ ભવ્ય જનને ઉપદેશ દેતાં વર ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૨
SR No.006370
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages901
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size49 MB
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