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अनगारधममृतवर्षिणीटीका अ ३. जिनदत्त-सागरदत्तचरि
७०१ स्थाने स्वगृहे एवं अ(नेन प्रकारेण) 'दो कीलावणगा द्वौ क्रोडनकौ-क्रीडा कारको द्वौ मयूरपौतको मयूरीशावको भविष्यत इति कृत्वा-इति विचार्य, अन्योऽन्यस्यैतमर्थ प्रतिश्रृणुतः मनसि धोरयतः, प्रतिश्रुत्य 'सए सए' स्वकान् म्बकान-दासचेटकान् शब्दयतः शब्दयित्वा चैवं वक्ष्यमाणप्रकारेणावादिष्टाम् हे देवानुभियाः गच्छत खल यूयं इमे--एते अण्डके मर्या अण्ड के गृहीत्वा स्वकानां जातिमतीनां कुकुटीनामण्ड केषु प्रक्षिपत, इति वचनं श्रुत्वा यावत्ते दासा अपि तथैवाण्डके प्रक्षिपन्ति ॥ स. १२ ॥ वाली हम दोनों की कुक्कुटिकाएं इन हम लोगों के द्वारा लाये हुए मयूरी के अंडों की अपने २ अंडो की रक्षा तया उनकी परकृत उपद्रवों से प्रतिपालना करती हुई रक्षा और प्रतिपालना करले गी। (तएणं अम्हं एत्थं दो कीलामणगा मऊरपोयगा भविस्संति तिकटु अन्नमन्नस्स एयम पडिमुणे ति) इस प्रकार हम लोगों के अपने २ घर पर दो क्रीडा कारक मयूरी पोत (वच्चे) हो जावेगे ऐसा विचार कर उन दोनोंने आपसमें एक दूसरे का विचार स्वीकार कर लिया (पडिसुणिता सए सए दासचेडए सदावे ति) स्वीकार कर फिर उन्होंने अपने २ नौकरों को बुलाया (सदा वित्ता एवं वयासी) बुलाकर ऐसा कहा-(गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया !) हे देवानुप्रियो ! तुम लोग जाओ और (इमे अंडए गहाय सयाणं जाइमताणं कुक्कुडीणं अंडएसु पक्खिवह जाव ते वि पक्खिवें ति) इन मयूरी के दोनों अंडोको ले जाकर अपनी २ जातीवाली कुक्कुटिकाओं के अंडों में रख दो। इस प्रकार के उनके कथन को सुनकर " यावत् उन दासौंने भी उस तरह उन दोनों अंडो को ले जाकर उन कुक्कुटिकाओं के अंडों में रख दिया। मू. १२॥ બહારના ઉપદ્રવથી રક્ષણ કરતી ઢેલના ઈડાનું પણ રક્ષણ કરશે અને પાલન પોષણ કરશે (तएणं अम्हं एत्थं दो कीलामणगा मउरपोयगा भविस्संति तिकट्ट अन्नमः न्नस्स एयम पडिसुणेति)मा शते आप मनेनां धरोमा मयूरना अय्या। थरी. भाम तेया मने मे भीतना वियारोथी सहमत थया. (पडिसणिता सए सए दासचेडए सदावे ति) सहमत थने तेमाणे पातपाताना नारीने माराव्या (सदावित्ता एवं क्यासी) मासावीन. 21 प्रमाणे घ्युं (गच्छहणं तुम्भे देवाणुपिया!) देवानुप्रियो ! तभे यो मने (इमे अडए गहाय सयाणं जाइमंताणं कुक्कुडीणं अंडएमु पक्खिवह जाव ते विपक्खिवेंति) मा वेदना मानाने भारी મરઘીઓના ઈંડાઓની વચ્ચે મૂકી દે. આ રીતે તેમની વાત સાંભળીને નોકરીએ બંને ઈડાને લઈને સાર્થવાહ પુત્રોની મરઘીના ઈંડાઓની વચ્ચે મૂકી દીધાં સૂત્ર ૧૨
શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૧