SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 705
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका अ. ३ जिनदत्त-सागरदत्तरित्रम् भरणशोभितो, 'असत्था' आस्वस्थौ परिश्रमापनयनेन स्वस्थीभूतौ, प्रसन्नचित्तौ इत्यर्थः 'वीसस्था'विस्वस्थौ विशेषेण स्वस्थीभूतौ सर्वथाऽपगतश्रमौ, सुखासनवरगतो सुखप्रदपर्यङ्कायासनोपविष्टौ, देवदत्तया सार्द्ध तं विपुलं विस्तीर्णम् अशनं पानं खाद्यंस्वाध धूपं पुष्पं गन्धं वस्त्रं च, 'असाएमाणा' आस्वादयन्तौ-ईषत्स्वादयन्तौ 'विसाएमाणा' विस्वादयन्तौ-विशेषेण वारं वारमास्वादयन्तौ, 'परिभुजेमाणा' परिभुजानौ-परिभोगं कुर्वाणौ एवं च अनेन प्रकारेण खलु विहरतः आसाते। अपि च खलु 'निमिय भुत्तु त्तरागया' जिमित भुक्तोतरागतौ निमितं-खादितं, भुक्तम् आस्वादितं ताभ्यामुत्तरं अनन्तरम् आगतौ सुरवासनं पर्यङ्कादिकं प्राप्तौ, निमितमुक्तानन्तरम्-आचान्तौ शुद्धोदकेन कृताचमनौ, लेपायपनयनेन चोक्षौ आकर वे उसमें प्रविष्ट हुए (अणुपविसित्ता सव्वालंकारविभूसिया आसत्था वीसत्था सुहासणवरगया देवदत्ताए सद्धि) प्रविष्ट होकर सर्व अलंकारो से विभूषित बने हुए वे आश्वस्त-परिश्रम के अपनयन से स्वस्थचित्त हुए विश्वस्त हुए-सर्वथा परिश्रम से रहित हुए और सुखप्रदपर्यङ्क (पलंग) आदि आसन पर जाकर बैठ गये। बाद में उन्होंने उस देवदत्ता के साथ (तं विउल असणं ४ धूवपुप्फगंधवत्थं आसाएमाणा, वीसाएमाणा परिभुजे माणा एवं च णं विहरंति) उस विपुलमात्रामें निष्पन्न हुए अशन, पान, खाद्य, स्वाध रूप चारों प्रकार के आहार को किया रुचर कर उसका स्वाद लियाधूप, पुष्प, गंध, वस्त्र का वितरण किण-(जिमियभुत्तु त्तरागया वि य णं समाणा देवदत्ताए सद्धिं विउलाइंमाणुस्सगाई कामभोगाई भुंजमाणा विहरंति) जब वे अच्छी तरह खा पी चुके-तब देवदत्ता के साथ वे पर्यङ्क आदि आसन पर आकर बैठ गये वहां इतना संबन्ध और इस प्रकार जोड लेना चाहिये(अणुपविसित्ता सव्वालंकारविभूसिया आसत्था चीसत्था सुहासणवरगया देवदत्ताए सद्धिं) प्रवेशीने समारोथा विभूषित थयेटा तया माश्वस्त-था- २ સ્વસ્થચિત્ત બન્યા. વિશ્વસ્ત થયા–સર્વથા શ્રમ રહિત થયા, અને સુખેથી બેસાય તેવા પલ ગ (પર્યક) વગેરે આસન પર બેસી ગયા. ત્યારબાદ તેમણે દેવદત્તા ગુણિકાની સાથે (त विउल असण धूवपुप्फगंधवत्थं आसाएमाणा, वीसाएमाणा परिभुजेमाणा एवं च णं विहरांति) ४ प्रभाशुभां तैयार रावीन. त्या पाडायाડવામાં આવેલા અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્ય રૂપ ચાર જાતના આહારને યથારુચિ अभ्या. तेभ धूप,-५०५, ५ अने वस्त्रोनु वितरयु(जिमिय भुत्तुत्तरागया वि य णं समाणा देवदत्ताए सद्धि विउलाई माणुस्सगाई कामभोगाइ भुजमाणा विहरति) या पछी तेम्मो पर मेरे सरस आसन। ५२ मावान हेपत्ता ગણિકાની સાથે બેસી ગયા. અહીં આટલી વિગત વધારાની જાણી લેવી જોઈએ કે શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૧
SR No.006332
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages764
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size45 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy