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________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका अ २. सू. ४ विजयतस्करवर्णनम् ५८५ रूपेषु 'बिरे' विधुरेषु व्याकुलावस्थारूपेषु 'वसणेसु' व्यसनेषु - विपत्सु 'अभुदरसु' अभ्युदयेषु राज्यलक्ष्म्यादिप्राप्तिरूपेषु 'उस्सवेसु' उत्सवेषु विवाहादिपसङ्गरूपेषु 'सवेसु' प्रसवेषु' - पुत्रादिजन्मोत्सवेषु 'तिहिसु' 'तिथिनुसांवत्सरिकादिरूपासु 'छणेसु' क्षणेषु आनन्दजनकव्यापाररूपेषु 'जन्नेसु' यज्ञेषु नागाद्युत्सवेषु 'पव्वणीसु' पर्वणीषु कार्तिक पूर्णिमादिपर्व तिथिषु मत्तप्रमत्तस्स' मत्तप्रमत्तस्य तत्र 'मत्त' उन्मत्तः 'पमत्त' प्रमत्तः - प्रमादवान् यःस तस्य 'विक्खित्तस्स' विक्षिप्तस्य प्रयोगविशेषेण भ्रान्तचित्तस्य 'वाउलस्स' वातुलस्य वातरोगयुक्तस्य अन्यमनस्कस्य वा 'हिस्स' सुखितस्य' सकलेन्द्रियानुकूलविषयप्राप्तत्वात्सुखमग्नस्य 'दुविश्वयस्स' दुःखतस्य इष्ट वियोगानिष्टसंयोगादिना दुःख निमग्नस्य 'विदेसत्थस्स' विदेशस्थस्य परदेशस्थितस्य 'विश्वसियस्स' विप्रोषितस्य इष्टजनवियोगिनः इत्यादि बहुजविहरेसु) व्याकुल अवस्था में होता था ( वणणेसु) किसी और विरति से ग्रस्त होता था उस समय में तथा (अभुदासु) राज्यलक्ष्मी आदि की प्राप्तिरूप उत्सवों में (उस्सवेसु य पसवे सुय तिहीसु य छणेसुय जन्नेसु य पव्वणी य) विवाह आदि प्रसंगो में पुत्रादि जन्मोत्सवों में सांवत्सरिक तिथियों में, आनंद जनक व्यापाररूप क्षणों में नागादि उत्सवरूप यज्ञों में कार्तिक पूर्णिमा आदिरूप पर्वतिथियों में. (मत्त - पमत्तस्स विक्वित्तस्स वाउलस्स य सुहियस्स य दुक्खियस्स य विदेसत्थस्स य विष्ववसियस्स य) जब कोई जन मत हो जाता था प्रमादवशंगत हो जाता था, प्रयोग विशेष से भ्रान्त चित्त बन जाता था, वातव्याधि से युक्त हो जाता था । या अन्यमनस्क हो जाता था, सकल इन्द्रियों के अनुकूल विषयों की प्राप्ति से आनन्द थुक्त बन जाता था इष्ट वियोग अनिष्ट संयोग आदि से दुःख(वसणेसु) मी | माइतमा इसायलो रहेतो, ते सभये तेन (अन्भुद एसु) राज्य लक्ष्मी वगेरेनी प्रसि३प उत्सवामां (उस्सवेसुय पसवेसु य तिहीसु य छणेसु य जन्नेस य पव्वणीसु य) लग्न वगेरेनी प्रसंगौमां, पुत्र वगेरेना ४-भाસવામાં, સાંવત્સરિક તિથિયામાં, આનંદની ક્ષણેામાં, નાગ વગેરેના ઉત્સવ રૂપ यज्ञोमां अतिङे धूनभ वगेरे ३५ पर्व तिथियामां (मत्त मत्तस्स विक्वियस्सउवा लस्स य सुहियरस य दुक्खियस्स य विदेसत्यस्स य पयत्तस्स विखयस्स विष्ववसियस्स य) જ્યારે કાઈ માણસ ગાંડા થઈ જતા, પ્રમાદી થઈ જતા, (તંત્ર મંત્રના) પ્રયાગ વિશેષથી ભ્રાંતચિત્ત થઇ જતા, વાતના રાગથી પીડિત થઈ જતા, શૂન્ય મનસ્ક થઈ જતા, બધી ઈન્દ્રિયાને સુખ પ્રાપ્તિ થાય એવા સયાગ થતાં જ્યારે કોઇ આનંદ મગ્ન થઈ જતા, ઈષ્ટ વિગ તથા અનિષ્ટ સાગ વગેરેથી દુ:ખી થઈ જતા, પરદેશમાં શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૧
SR No.006332
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages764
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size45 MB
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