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________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे भाग्यवानसि खलु त्वम्, 'संपुन्नोऽसि' संपूर्णोऽसि समस्तगुणसंभृतोऽसि धर्माध्यवसायवश्वेन सकलगुणगरिष्ठोऽसि, 'कयस्थोऽसि कृतार्थोसि= कृतः अर्थः स्वात्मकल्याणरूपो येन स तथाऽसि, 'कयलक्खणोऽसि तुमं जाया !' हे जात ! त्वं कृत लक्षणोऽसि = कृतानि= सफलीकृतानि, लक्षणानि=शरीरवर्ति मशतिलकादि चिनानि येन स तथाऽसि, 'जन्नं' यत् = यस्मात् खलु त्वया श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके धर्मो निशान्तः =श्रुतः, सोऽपि च 'तव धर्मः इष्टः प्रतीष्टोऽभिरुचितः । ततः खलु स मेघकुमारो मातापितरौ 'दोच्चंपि' द्वितीयवारमपि 'तच्चपि' तृतीयवारमपि एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादी एवं खलु हे माताfeat मया श्रमणस्य अन्तिके धर्मो निशान्तः =श्रुतः, सोऽपि च मम धर्मः तुमं जाया, कयलक्खणोसि तुमं जाया) हे पुत्र ! तुम बहुत बडे भाग्यशाली हो तुम समस्त गुणों से भरे हुए हो, तुम कृतार्थ हो, तुमने अपने शरीर वर्त्ती समस्त शुभलक्षणों को सफलित कर लिया है (जन्नं तुमे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मेणिसंते) जो तुमने भगवान महावीर के मुख से श्रुतचरित्र रूप धर्म का श्रवण किया है । (सेविय ते धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए) और उसे तुमने अपने इष्ट का साधक बने अंगीकार किया है आराध्यरूप से उसे जाना है तथा तुम्हे अभिरुचित हुआ है। तरणं से मेहे कुमारे अम्मापियरो दोच्चपि तच्चपि एवं वयासी) मेघ कुमारने अपने मातापिता से दुबारा और तिवारा भी ऐसा ही पूर्वोक्तरूप से कहा कि- एवं खलु अम्मयाओ मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मे निसंते से विय मे धम्मे या वन्यनो सांलजीने भातापितायेधु – ( धन्नेसि तुमं जाया, कयत्थो सि तुमं जाया, कयलक्खणोसि तुमं जाया ) हे पुत्र ! तमे महु लाग्यशाली छो, તમે સકળ ગુણ સંપન્ન છે, તમે કૃતાર્થી છે, તમે પાતાના શરીરવતી બધા શુભलक्षणाने सण मनाव्यां छे. (जन्नं तुमे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिर धम्मे सिंते) उभ तमे भगवान महावीरना भुजथी श्रुत यारित्र३य धर्मनुं श्रवणु यु छे. ( से विय ते धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए અને તેને તમે પેાતાના ઇષ્ટ સાધકરૂપે સ્વીકાર્યાં છે, આરાધ્યરૂપે તે ધર્મને જાણ્યા छे तेभ ते तमने गभी गयो छे. (तएणं से मेहेकुमारे अम्मापियरो दोच्चंपि तच्चपि एवं बयासी ) भेघकुमारे पोताना भातापिताने मील मने त्रीक वजत पशु या प्रभाग ४ - ( एवं खलु अम्मयाओ मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिर धम्मे निसंते से विय मे धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए ३२८ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૧
SR No.006332
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages764
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size45 MB
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