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________________ २१६ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे दुःस्वविजयशीलया दुतया छेयाए' छेकया आगमने विघ्नचाधाविवर्जितत्वेन णि वुणया, 'दिव्याए' दिव्या= उत्तमत्वेन मनोहरया, 'देवगइए' देवगत्या देवसम्बन्धिश्रेष्ठ गत्या, 'जेणामेवजंबूहीवे२' इत्यादि, यत्रैव जम्बूद्वीपो द्वीपः= मध्यजम्बूद्वीप इत्यर्थः' भारतवर्ष यत्रैव दक्षिणार्द्धभरतक्षेत्रं राजगृह नगरं पौषधशालायामभयकुमारः अष्टमभक्तं कुर्वाणश्च तिष्ठिति तत्रोपागच्छति, उपागत्यान्तरिक्षप्रतिपन्नः दशार्धवर्णानि सकिङ्किणिकानि प्रवरवस्त्राणि परिध्रतः सर्वालंकारसम्पन्नः, अभयकुमारम् एवमवदत-हे देवानप्रिय ! अहं खलु सौधमेकल्यवासी तव पूर्वसंगतिको देवो महद्विकोऽस्मि, 'जण्णं' यत् यस्मात खलु हुआ करती है उसी तरह की उसकी वह गति भी बलको लिये हुई थी इसलिये उसे सिंह जैसी यहां प्रकट किया है। शीघ्र मुझे मित्र का मिलाप हो जावे ऐसी भावना उम देव के भीतर काम कर रही थी अतः उसकी गति में उद्धतता आगई थी। मैं अपने मित्र के दुःखपर विजय पालूंगा ऐसा आत्मविश्वास उस देव के हृदय में जम चुका था-अतः उसका गति में जयशीलता आगई थी। उस देव के आगमन में किसी भी प्रकार की विघ्नबाधा नहीं थी इसलिये उसकी गति छेका रूप थी। दिम बह इसलिये थी कि वह मन को हरण करती थी। (उवागच्छित्ता) अभयकुमार के पास आकर और (अंतलिक्खपडिवन्ने दसद्धवन्नाइंस खिखिणियाई पचरवत्थाई परिहिए अभयकुमारं एवं वयासी) आकाश में ही स्थित रह कर तथा वे हो पंचवर्ण के क्षुद्रघंटिकाओं से युक्त श्रेष्ठवस्त्र पहिरे हुए उस देवने उस अभयकुमार से ऐसा कहा-(अहन्नं देवानुप्पिया पुवसंगइए सोहम्मकप्पवासी देवे महड्डिए) हे अभयकुमार? मैं तुम्हारा पूर्वभव का જેવી બલવાન હતી એટલે જ તેને સિંહ જેવી બતાવવામાં આવી છે. મિત્રને મિલાપ સત્વરે થાય એવા વિચારે તેના મનમાં ઉત્પન્ન થઈ રહ્યા હતા, એથી તેની ગતિમાં “ઉદ્દતતા આવી ગઈ હતી. મારા મિત્રનું કાર્ય હું સિદ્ધ કરીશ એવો આત્મવિશ્વાસ તેના મનમાં ઉત્પન્ન થઈ ગયો હતો, તેથી તેની ગતિમાં જ્યશીલતા આવી ગઈ હતી. દેવને પ્રકટ થવામાં કે આવવામાં કેઈપણ જાતના અન્તરાય કે વિદને વચ્ચે નડતાં ન હતાં તેથી તેની ગતિ છેકા (ચાતુર્ય) ३५ उता. ते मनने माना। इती मेटमा माटे गति हिव्य ती. (उबाग च्छित्ता) समयमा२नी पासे ४४२ (अंतलिक्वपडिवन्ने दसद्धवन्नाई सखि चिणियाइं पवरवत्थाई परिहिए अभयकुमारं एवं क्यासी) मामा म२२हेता અને પાંચ રંગના ક્ષુદ્ર ઘંટિકાઓવાળા ઉત્તમ વર ધારણ કરેલા દેવે અભયકુમારને युं 3-(अहन्नं देवानुप्पिया पुचसंगइए सोहम्मकप्पवासी देवे महडिए) - અભયકુમાર હું તારા પૂર્વભવને મિત્ર સૌધર્મ કલ્પવાસી મહદ્ધિક દેવ છું. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૧
SR No.006332
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages764
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size45 MB
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