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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३० उ.१ सू०१ जीवानां कर्मबन्धकारणनिरूपणम् ६९ 'एवं जाव काउलेस्सा' एवं सलेश्यनारकवदेत्र यावत्पदेन कृष्णनीलकापोतलेश्यावन्तः कृष्णलेश्यादिका नारकाः क्रियावादिनी यावद्वैनयिकवादिनो भवन्ति । 'कण्हपक्खिया किरिया विवज्जिया' कृष्णपाक्षिका नारकाः क्रियाविवर्जिताः कृष्णपाक्षिका नारका न क्रियावादिनोऽपितु अक्रियावादिनो याबद्वैनयिकवादिनी भवन्तीति भावः । एवं एए णं कमेणं जच्चेब जीवाणं वत्तव्यया' एवमेतेन-उपरि दर्शितप्रकारेण यैव जीवानां वक्तव्यता कथिता 'सच्चेव नेरइयाणं वत्तव्ययात्रि' सेव नैरयिकाणां वक्तव्यताऽपि भणितव्या कियत्पर्यन्तं जीववक्तव्यताऽत्र मणितच्या तत्राह-'जाव' इत्यादि, 'जाव अणागारोव उत्ता' यावदनाकारोपयोगयुक्ता एतदन्तप्रकरणं सर्वमिहापि ज्ञातव्यम् अज्ञानित आरभ्य साकारोपयोगयुक्तान्त सम्पूर्ण प्रकरणस्य संग्रहो ज्ञातव्यइति । 'नवरं जं अस्थि तं भाणियब' नवरं यद् ज्ञानादिकं यस्यास्ति विद्यते तस्य तदेव भणितव्यम् ‘सेसं न भण्णइ' शेषं न होते हैं। 'एवं जाव काउलेस्सा' सखेश्यनारक के जैसे ही कृष्णले. श्यावाले, नील लेश्यावाले और कापोतलेश्या वाले नैरयिक जीव क्रियावादी भी होते हैं यावत् वैनयिकवादी भी होते हैं। 'कण्हपक्खिया किरिया विवज्जिया' कृष्णपाक्षिक नारक क्रियावादी नहीं होते हैंकिन्तु अक्रियावादी यावत् वैनधिकवादी होते हैं । एवं एएणं कमेणं जच्चेव जीवाणं वत्तव्वया 'इस प्रकार से ऊपर में प्रकटित किये गये अनुसार जो जीवों की वक्तव्यता कही गई है, 'सच्चेव नेरझ्याण बत्तव्यया वि' वही वक्तव्यता यहां नैरयिकों के सम्बन्ध में 'जाव अणा. गारोव उत्ता' यावत् नाकारोपयोगवाले नैरपिकों के प्रकरण तक सब कहनी चाहिये । 'नवरं जं अस्थि तं भाणियन्वं' परन्तु इस वक्तव्यता में जो जिसके हो वही उसके कहना चाहिये। 'सेसं न भण्ण' और नयी ५ सय छे. 'एवं जाव काउलेस्सा' वेश्या ना२४॥ यन પ્રમાણે જ કૃષ્ણલેશ્યાવાળા, નીલલેશ્યાવાળા, અને કાપત લેશ્યાવાળા, નરયિક છ ક્રિયાવાદી પણ હોય છે, યાવત્ વૈનાયિકવાદી પણ હોય છે. “gपक्खिया किरिया विवज्जिया' ५५ पाक्षि ना२७ लियाचाही खाता नथी. ५२ मालियापही यावत् वैनी डाय छे. 'एवं एएणं कमेणं जच्चे जीवाणे बत्तव्वया' मा प्रमाणे ७५२ मतावेस प्राथी छाना समयमा २ यन डेस छ, 'सच्चेव नेरइयाग वत्तक्या वि' से थन माडिया नयि। ना संघमा 'जाव अणागाराव उत्ता' यावत् मना५ये.गाणा नेविाना ३२५ पर्यंत सगुथन नये 'नवरंजं अत्थित भाणिय' ५२ मायनमा स्थान नासधी हाय त स्थान त उनसे. 'सेस શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૭
SR No.006331
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages803
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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