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________________ - प्रमेयचन्द्रिका टीका श०४१ ३.१ राशियुग्मनिरूपणम् ७०५ संख्येयान् समयान अन्तरं कृत्वा समुत्पद्यन्ते । 'निरंतरं उपवज्जमाणा जहन्ने दो समया' निरन्तरमुद्यमानाः जघन्येन द्वौ समयौ यावत 'उक्कोसेणं असंखेज्जा समया अणुसमयं अविरहियं निरंतर उववज्जति' उन्कर्षणासंख्येशन समयान् यावत् अनुसमयमविरहित निरन्तर समुत्पद्यन्ते । 'अनुसमयं' इत्यादि पदत्रयमे. कार्यकम् । 'ते ण भते ! जीवा जं समय कडजुम्मा तं समयं तेओगा' ते खलु भदन्त ! जीवा यस्मिन् समये कृतयुग्मा इत्यभिधीयन्ते तसिन् समये किं व्योज पदवाच्याः सम्भवन्ति ? तथा-'जं समय तेओगा त समय कड जुम्मा' यस्मिन् समये योज पदवाच्याः तस्मिन् समये कुनयुग्म शब्द गाच्याः सम्भवन्ति किमिति प्रश्नः, उत्तरमाह-'णो इणढे समडे' नायमर्थः समर्थः एक संख्याश्रितानां सान्तर उत्पन्न होने पर वे जघन्य से एकममय का और उत्कृष्ट से असंख्यात समयका अन्तर कर के उत्पन्न होते हैं। निरंतर उववज्जमाणा जहन्नेणं दो समया' और निरन्तररूप से जब बे उत्पन्न होते हैं तब वे जघन्य से दो समय तक एवं 'उक्कोसेणं असंखेज्जा समया अणुसमयं अविरहियं निरंतर उज्जति' उत्कृष्ट से असंख्यातसमय तक प्रत्येक समय में विना अन्तर के उत्पन्न होते रहते हैं । 'अनुसमय आदि ये तीन पद एक ही अर्थवाले हैं। 'ते भंते ! जीवा ज समय कडजुम्मा त समयं तेमोगा' हे भदन्त ! वे जीव जिम समय में कृतयुग्मपदवाच्य होते हैं उस समय में वे क्या योजपदवाच्य होते हैं ? तथा-'ज समयं तेोगात समयं कउजुम्मा' वे जिस सपथ में व्योजपदवाच्य होते हैं उस समय में वे कृतयुग्मपदयाच्य होते है ? ઉત્પન્ન થાય ત્યારે તેઓ જઘન્યથી એક સમયથીઅને ઉત્કૃષ્ટથી અસંખ્યાત समयन। मत२थी ५न्न थाय छे. 'निरंतर उववज्जमाणा जहण्गेण दो समया' भने निरत२५६४थी न्यारे ते उत्पन्न थाय छे, त्यारे तया ॥५. न्यथी मे समय सुधी भने 'उक्कोसेण असंखेज्जा समया अणु समयं अविरहिय निर'तरउववजंति' Gथी अयात समय सुपी प्रत्येॐ समयमा तर વિના ઉત્પન્ન થતા રહે છે. “અનુ સમય વિગેરે આ ત્રણ પદે એક જ २॥ मन मतावास छे. 'ते ण भंते जीवा ज समय कडजुम्मा त समय तेओगा' भवन ते ०३२ समयमा तयुम ५४ाणा डाय छ, a मते ते। शुये।४ ५४॥ य छ १ तथा ‘ज समय तेओगा त समय कड जुम्मा' २ मते तेथे व्यापथी युद्धत डाय छे, ते १५ તેઓ શું કૃતયુગ્મ પદવાળા હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૭
SR No.006331
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages803
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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