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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१० अ.श.५ तेजोलेश्य संज्ञिमहायुग्मतम् ६६१ संख्येयभागाधिक सागरद्वयात्मकावस्थान काल कथन मीशानदेव परमायुराश्रित्य ज्ञातव्यमिति । 'एवं ठिईए वि' एवं स्थितावपि एवमायुषः स्थितिरपि जघन्यो स्कृष्टाभ्यामेकसमयममाणा पल्योपमासंख्येयभागाभ्यधिकद्विसागरोपमप्रमाणा च भवतीति भावः । 'नवरं नोसन्नोवउत्ता वा' नवरं तेजोलेश्य संक्षिपश्चेन्द्रियानो संज्ञोपयुक्ता वा भवन्तीति । एवं तिसु वि उद्देसएमु एवमेव त्रिष्यपि प्रथम तृतीय पञ्चमोदेशकेष्वपि अवस्थिति स्थित्यादे ज्ञातव्यम् 'सेसं तं चेव' शेषं-तदतिरिक्त सर्व त्रिदेशकेषु शेषाष्टोद्देशकेषु च तदेव प्रथमशतकोक्तमेव ज्ञातव्यमिति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति' तदेव भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ॥
॥ चत्वारिंशत्तमें शतके पंचमं सज्ञिमहायुग्मशतं समाप्तम् ॥४०१५॥ अवस्थान काल जघन्य से एक समय का और उत्कृष्ट से पल्योपम के असंख्यातवें भाग से अधिक दो सागरोपम का है ऐसे अवस्थान काल का कथन यहां तेजोलेश्या की उत्कृष्ट स्थिति को लेकर कहा गया है । क्यों कि ईशानदेवलोक के देवों की उत्कृष्ट आयु पल्योपम के असंख्यातवें भाग से अधिक दो सागरोपम की है। ‘एवं ठिईए वि' स्थितिकाल भी अवस्थान काल के जैसा ही है । 'नवरं नो सन्नोवउत्ता' ये तेजोलेश्यावाले संज्ञि पंचेन्द्रिय जीव नो संज्ञीपयुक्त भी होते हैं। 'एवं तिसु वि उद्देस एसु' इसी प्रकार से अवस्थानकाल और स्थिति काल आदि का कथन प्रथम, तृतीय और पंचम इन तीन उद्देशकों में भी कर लेना चाहिये 'सेसं तं चेव इनके अतिरिक्त और सष कथन अवशिष्ट आठ उद्देशकों में ३ तीन और ८-११ उद्देशों में प्रथम शतक में जैसा कहा गया है वैसा ही है । 'सेव भते ! सेव भंते !त्ति' हे भदन्त ! जैसा आपने यह कहा है वह सब सर्वथा सत्य ही है २ । એક સમયને અને ઉત્કૃષ્ટથી પલ્યોપમના અસંખ્યાતમા ભાગથી વધારે બે સાગરોપમાને છે. એવા અવસ્થાન કાળનું કથન અહિયાં તેઓલેશ્યાની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિને લઈને કહેલ છે. કેમકે-ઈશાન દેવમાં દેવેનું ઉત્કૃષ્ટ આયુ ૫५मना मसण्यात मागणी पधारे में सागरोपभनु छे. 'एवं ठिईए वि' स्थिति ५६ मनस्थान प्रमाणे छे. 'एवं तिसुवि उदेसएस' मा પ્રમાણે અવસ્થાનકાળ અને સ્થિતિકાળનું કથન પહેલા, ત્રીજા, અને પાંચમા આ ત્રણ ઉદ્દેશાઓમાં પણ કરી લેવું જોઈએ. આ કથન શિવાય બીજુ સઘળું કથન બાકીના આઠ ઉદ્દેશાઓમાં ૩ અને ૮-૧૧ ઉંદેશાઓમાં પહેલા શતકમાં જે પ્રમાણે કહેલ છે, એજ પ્રમાણે છે.
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭