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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३६ अ. श. २-४कृष्णलेश्य कृ. कृ. द्रीन्द्रियजीवोत्पातः ६०५ यावद्देवेभ्यो वेति प्रश्नः । उत्तरमाह - ' एवं ' इत्यादि । ' एवं ' चेव' एवमेत्र एवम् एतच्छतकीप कृतयुग्मकृतयुग्म द्वीन्द्रियाख्यप्रथमशतकवदेव ' कण्हलेस्सेसु एकारस उद्देसग संजुवं सयं' कृष्णलेश्येष्वपि औधिकमथमसमयाप्रथम समयाधेका दशोदेशक संयुक्तं शतं भणितव्यम् । नवर लेस्सा संचिणा ठिई जहा एगिंदिय कण्हले साणं' नवर मेतच्छतकीय प्रथमशतापेक्षया इदं वैलक्षण्यं यदत्र लेश्यासंस्थानं स्थिति यथा एकेन्द्रियकृष्णलेश्यानां कथिता तथैव ज्ञातव्या ॥
पत्रिंशत्तमें शतके द्वितीयं द्वीन्द्रियमहायुग्म शतं समाप्तम् ॥ ३६-२॥ ' एवं नीललेस्सेहि विसयं' एवं यथा कृष्ण लेश्यै रेकादशोदेशक संयुक्त द्वितीयं उत्पन्न होते हैं ? अथवा देवों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ! इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-' एवं चेव' हे गौतम! जैसा इस सम्बन्ध में इसी शतक में कृतयुग्म कृतयुग्म दीन्द्रिय नामक औधिक, प्रथम शतक में कहा गया है वैसा ही शतक कृष्णलेइयावाले द्वीन्द्रिय जीवो के सम्बन्ध में भी औधिक प्रथम समय, अप्रथम समय आदि ११ उद्देशकों से युक्त यहां पर भी कहलेना चाहिये। 'नवर' लेस्सा संचिणा लिई जहा एगिंदिय कण्हलेम्साण' परन्तु इस शतक के प्रथम शत की अपेक्षा यहां पर ऐसी विलक्षणता है कि यहां लेश्या संचिणा स्थितिकाल और आयुष स्थिति ये कृष्णले श्यावाले एकेन्द्रिय जीवों के जैसे ही कहे गये हैं ।
द्वीतीय द्वीन्द्रिय महायुग्म शत समाप्त | ३६- २ |
'एव' नीलले सेहि वि सयं' जैसा ११ उद्देशकों से युक्त शत અથવા મનુષ્યેામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા દેવામાંથી આવીને ઉત્પન્ન थाय छे ? या प्रश्नना उत्तरमां अनुश्री गौतमस्वामीने हे छे है- 'एव' चैव' હૈ ગૌતમ ! આ સૌંબધમાં આ શતકમાં કૃતયુગ્મ કૃયુગ્મ દ્વીન્દ્રિય નામનું ઔધિક-પહેલું શતક કહેલ છે, એજ પ્રમાણેનું શતક કૃષ્ણુલેશ્યાવાળા એ ઈન્દ્રિયવાળા જીવેના સંબંધમાં ષણ ઔશ્વિક પ્રથમ સમય, અપ્રથમ સમય बिगेरे ११ अशियार उद्देशाभोवाणु शतः मडियां पशु समभवु' 'नवर ं लेखा संचिणाठिई जहा एर्गिदियकण्हलैस्साण" परंतु आ શતકમાં પહેલા શતકના કથન કરતાં એવુ' વિલક્ષણ પણ છે કે અહિયાં લેશ્યા સ`ચિઠ્ઠણા સ્થિતિકાળ અને આયુષ્ય સ્થિતિ આ કૃષ્ણલેશ્યાવાળા એકેન્દ્રિય છવાની જેમ ४ उडेल छे.
રાખીજું દ્વીન્દ્રિય મહાયુગ્મ શતર્ક સમાપ્ત ૫૩૬-૨ા
' एवं ' नीललेस्सेहिं वि सय" अगियार उद्देशावाणु शतम् दृष्युसेश्या
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭