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________________ ४७१ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श०२ कृष्णलेश्यैकेन्द्रियनिरूपणम् चत्वारो मेदा भवन्तीति । 'कण्डलेस्स अपज्जत हुमपुढवीकइए णं भंते । कृष्णलेश्याऽपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकः खलु भदन्त ! ' इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरत्थि मिल्ले० ' एतस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पौरस्त्ये० ' एवं एएणं अभिलावेण जहेब ओहिउद्देसओ जाव लोगचरिमंतेत्ति' एवमेतेनाभिला पेन यथैव औधिको देशको यावल्लोकचरमान्त इति, 'सम्वत्थ कण्हलेस्से सु चेव उववारयन्त्रो' सर्वत्र कृष्णलेश्येष्वेव उपपातयितव्यः । यथैवौधिक उद्देशकः अत्रैव चतुस्त्रिंशत्तमशतकगते प्रथमे एकेन्द्रियशतके सामान्येन - अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकप्रकरणोक्तं सर्व प्रकरणं वाच्यम्, विशेष एतावानेव यत् चार भेद जैसे कहे गये हैं वैसे ही वे यहां पर भी जानना चाहिये । 'कण्हलेस अपज्जन्त सुहमपुढवीकाइयाणं भंते! हे भदन्त ! वह कृष्णलेश्यावाले अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव कि जिसने 'इमीसे रणभाए पुढबीए पुरथिमिल्ले' इस रत्नप्रभापृथिवी के पूर्व चरमान्त में मारणान्तिक समुद्घात किया है और पश्चिम चरमान्त में उत्पन्न होने के योग्य हुआ है तो हे भदन्त । ऐसा वह जीव वहां कितने समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है ? इत्यादि पाठ द्वारा जैसा औधिक उद्देशक में कहा गया है वैसा ही लोक के चरमान्तसंबंधी प्रकरण तक समझना चाहिये । 'सन्वत्थ कण्ह लेहसेसु चेव उववाएयन्बो' और इन सबका सर्वत्र कृष्णलेश्यावालों में ही उपपात कहना चाहिये । तात्पर्य कहने का यही है कि जिस प्रकार से ३४ वें शतक गत प्रथम एकेन्द्रिय शतक में सामान्य से अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक के प्रकरण में कहा 'कण्हलेस अपज्जच सुहुमपुढवीकाइयाणं भंते! हे भगवन् ते बेश्याबाजा अथर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी अयि ने 'इमीसे रयणप्पभाष पुढवीए पुरत्थिमिल्ले' मा रत्नला पृथ्वीना पूर्व यरभान्तमां भारशान्तिः સમુદ્ઘાત કરીને પશ્ચિમ ચરમાન્તમાં ઉત્પન્ન થવાને ચાગ્ય હાય તે હું ભગવન એવા તે જીવ ત્યાં કેટલા સમયવાળી વિગ્રહગતિથી ઉત્પન્ન થાય છે ? ઇત્યાદિ પાઠદ્વારા ઔધિક ઉદ્દેશામાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે એજ प्रमाणे बोउना यरमान्त सुधी समन्वु लेहाये. 'सम्वत्थ कण्हलेहसेसु चैव उबवायव्वो' न्मने मा अधाना उपयात मधे ठेकृष्णुलेश्यावाणामां आवे જોઈ એ કહેવાનું તાત્પય એ છે કે-જે પ્રમાણે ચેાત્રીસમાં શતકના પહેલા એકેન્દ્રિય શતકમાં સામાન્ય પણાથી અપર્યાપ્તક સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિકના પ્રકરણમાં કહેવામાં આવેલ છે. એજ પ્રમાણેનુ' સઘળું પ્રકરણુ અહિયાં પણ કહેવુ જોઈ એ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭
SR No.006331
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages803
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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