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________________ ४५२ भगवतीस्त्र 'समणाउसो' हे श्रमण आयुष्मन् ! 'एवं एएणं कमेणं सव्वे एगिदिया भाणियबा' एवम् अनन्तरोपपन्नक पृथिवीकायिक केन्द्रियवदेव सर्वेऽपि अकायिकादय एकेन्द्रिया भणितन्याः प्ररूपणीया इति । 'सहाणाई सम्वेसि जहा ठाणपदे तेसि पज्जत्तगाणं बायराणं' स्वस्थानानि सर्वेषां शेषाणामकायिकाधे केन्द्रियाणां यथास्थानपदे-प्रज्ञापनाया द्वितीयपदे तेषां पर्याप्तकानां बादराणां यथा कथितानि तथैव ज्ञातव्यानि। बादरपृथिवीकायिकानां स्वस्थानानि चैत्रम्-'अट्ठसु पुढवीसु तं. जहा-रयणप्पभाए' अष्टसु पृथिवीषु तद्यथा-रत्नपभायाम् इत्यादि, बादराकायिकानाम् 'सत्तमु घणोदहीसु' सप्त घनोदधयः स्वस्थानम्, बादरतेजस्कायिकासमस्त लोक में व्याप्त होकर रहते है ऐसा 'समणाउसो' हे श्रमण आयुष्मन् ! इनके सम्बन्ध में कहा गया है । 'एवं एएणं कमेणं सव्वे एगिदिया भाणियव्वा' इसी प्रकार से समस्त सूक्ष्म अप्कायिक आदि एकेन्द्रिय जीव कह देने चाहिये । 'सहाणाई सम्वेसि जहा ठाणपदे, तेसि पज्जत्तगाणं बायराण' इन पृथिवीकायिक जैसा ही समस्त अप्कायिक आदि एकेन्द्रिय जीवों के स्वस्थान प्रज्ञापना के स्थान पद में कहे गये अनुसार जानना चाहिये ! जिस प्रकारसे पर्याप्त बादर एकेन्द्रियों के उपपात, समुद्घात और स्वस्थान कहे गये हैं उसी प्रकार से वे अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय जीवों के भी जानना चाहिये । बादरपृथिवीकायिकों के स्वस्थान इस प्रकार से है-'अट्ठसु पुढवीसु तं जहा रयणप्पभाए' बादरपृथिवीकायिकों का स्वस्थान रत्नप्रभा आदि आठ पृथिवियों में है 'सत्तसु घणोदहीसु' बादरअपका. यिकों का स्वस्थान सात घनोदधियों में हैं । धादर तेजस्कायिकों का थइने २७ छे. मे प्रमाणे “समणाउसो' के श्रम आयुष्मन् सामना विषयमा जुस छे. 'एवं एएण कमेण सव्वे एगिदिया भाणियव्वा' मा प्रमाणे સઘળા સૂક્ષ્મ અષ્કાયિક વિગેરે એકેન્દ્રિય જીવોના સંબંધમાં કહેલ છે. सटाणाई सम्वेसि जहा ठाण पदे वेसिं पज्जत्तगाण बायराण ॥ सघणामयिक એકેન્દ્રિય જીનું સ્વાસ્થાન પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના સ્થાનપદમાં કહ્યા પ્રમાણે સમજવું. જે રીતે પર્યાપ્ત બાદર એકઈન્દ્રિયવાળા જી.ને ઉપપાત, સમુદુઘાત અને સ્વસ્થાન કહેવામાં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણે આ અપર્યાપ્ત બાદર એકઈન્દ્રિયવાળા જીના સંબંધમાં પણ સમજવું. બાદર પૃથ્વીકાયિકેના स्वस्थान या प्रमाणे हे छे.-'अदुसु पुढवीसु त जहा रयणप्पभाए' मा४२ १२वीयितुं स्थान प्रा विगेरे मा पृथ्वीयोभा छे. 'सत्तम प्रणोदहीम' माइ२ मयितुं स्वस्थान साताव छ र શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭
SR No.006331
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages803
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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