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भगवती सूत्रे
'एवं बायरा वि' एवं कृष्णलेश्य भवसिद्धिक सूक्ष्मपृथिवीकायिकवदेव' कृष्णलेश्य भवसिद्धिक बादरपृथिवीकायिका अपि पर्याप्तकापर्याप्तकभेदेन द्विविधा भवन्ति । 'एरणं अभिलावेणं तव चउकत्रो भेदो भाणियन्बो' एतेन उपरि दर्शितेन अभिलापेन प्रकारेण तथैव यथैव औधिके केन्द्रियप्रकरणे चतुष्को भेदो वर्णितः पृथि व्यादिवस्पतिकायिकान्तानां तथैव तेनैव प्रकारेण कृष्णलेश्यभवसिद्धिकप्रकरणे पृथिव्याद्ये केन्द्रियाणां चतुष्प्रकारको भेदो भणितव्यो वर्णयितव्यः सूक्ष्मवादर: पर्याप्ताऽपर्याप्तरूपः ।
'कह लेस्स भवसिद्धिय अपज्जत्तगमढवीकाइयाणं भंते! कहकम्मपगडीओ पन्नताओ' कृष्णलेश्यभवसिद्धिकाऽपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकानां भदन्त ! कति कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ता ? भगवानाह - ' एवं एएणं' इत्यादि ' ' एवं एएणं अभिलासिद्धिक बादर पृथिवीकायिक भी पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद से दो प्रकार के होते हैं। 'एवं एएणं अभिलावेणं तहेव चक्कओ भेओ भाणिroat' जिस प्रकार से पृथिव्यादि से लेकर वनस्पतिकायिकान्त जीवों के चार भेद कहे गये हैं उसी प्रकार से कृष्णलेश्व भवसिद्धिक के इस प्रकरण में पृथिव्यादि एकेन्द्रियों के चार-चार भेद वर्णित करना चाहिये । तात्पर्य यह है कि सूक्ष्म, बादर, पर्यातक और अपर्याप्त रूप से समस्त कृष्णलेश्यावाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव चारचार प्रकार के होते हैं। 'कण्हलेस भवसिद्धिय अपज्जन्त सुहुमपुढवी काइयाण भंते! कइ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ' हे भदन्त ! कृष्णलेश्या वाले भवसिद्धिक अपर्यातक सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृतियां कही गई हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-' एवं एएण
લેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક સૂક્ષ્મપૃથ્વીકાયિક જીવેાના કથન પ્રમાણે જ કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક ખદર પૃથ્વીકાયિક સંબધી કથન પણું પર્યાપ્તક અને અપર્યાપ્તક ना लेहथी मे प्रभार सभ 'एव' एएण अभिलावेण तद्देव चउक्कओ भेओ भाणियव्वो' ने प्रमाणे पृथ्वी अधिक विगेरेथी सघने वनस्पति अयि सुधीना જીવાના સંબધમાં ચાર ભે। કહેવામાં આવ્યા છે. એજ પ્રમાણેના ચાર ભેદ કૃષ્ણલેફ્સાવાળા ભવસિદ્ધિકના આ પ્રકરણમાં પૃથ્વીકાયિક વિગેરે એકેન્દ્રિયાનુ' પણ વર્ણન કરી લેવુ' કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે-સૂક્ષ્મ, ખાદર, પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્તકના ભેદથી સઘળા કૃષ્ણુલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક એકેન્દ્રિય જીવા ચાર-ચાર પ્રકારના હાય છે.
'कण्ड्लेक्स भबसिद्धिय अपज्जत्तम सुहुमपुढवीकाइयाणं भंते ! कइ कम्म vastओ पन्नताओ' डे भगवन सेश्यावाजा लवसिद्धि अपर्याप्त सूक्ष्म
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭