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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३१ उ.२ १.१ कृष्णलेश्याश्रित नै. उत्पातादिकम् १८३ तप्तमनारक पृथिवी सम्बन्धि नारकेऽपि सर्व पूर्ववदेव ज्ञातव्यमिति । 'नवर उव. याओ सम्बत्थ जहा वक्तीए नवर वैलक्षण्यं केवलमुपपातो यथा व्युत्क्रान्ती पशपनायाः षष्ठपदे कथित स्तथैव ज्ञातव्य इति । 'कण्हलेस्स खुड्डाग तेओग मेरइयाणं भंते ! कभी उववज्जति' कृष्णळेश्य क्षुल्लकम्योजनैरयिकाः खलु मदन्त ! कुतः कस्मात् स्थान विशेषादागत्य नरकावासे समुत्पद्यन्ते ? इति प्रश्नः । उत्तरमाह-'एवं चेव' एवमेव एवं-यथा पूर्वपकरणे उपपादिः कथित स्तथैव इहापि ज्ञातव्यः । केवलं परिमाणविषये चैलक्षण्यं विद्यते तशेयति-'णवरं' इत्यादि 'णवरं तिन्नि वा, सत्त वा, एकारस वा, पमरस वा, संखेज्जावा, असंखेजा था' नवरं त्रयो वा, सप्त वा, एकादश वा, पञ्चदश वा, संख्याता वा, असंख्याताना ते जीवा एकसमयेन समुत्पधन्ते नरकावासे 'सेसं तं चेव' शेषं परिमाणातिरिक्तं सर्व तदेव औधिकारणकथितमेव । ‘एवं जाव अहे सत्तमाए वि' एवं याद उत्पाद कहना चाहीये, कण्हस्स खुड्डाग तेभोग नेरइयाणं भंते !' हे भदन्त ! कृष्णलेश्यावाले क्षुद व्यो जराशि प्रमाण नैरयिक कहां से आकर के नरकावास में उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'एवं चेव' हे गौतम ! पूर्व प्रकरण में जैसा कथन उत्पात आदि के सम्बन्ध में किया गया है उसी प्रकार का कथन यहां पर भी जानना चाहीये । परन्तु 'णवरं तिन्नि वा सत्त वा एक्कारस वा पन्नरसवा संखेज्जा वा असंखेनावा' यहां तीन अथवा सात या ११ या १५ या संख्यात या असंख्यात नैयिक उत्पन्न होते हैं 'सेसं तं चेवर इस प्रकार परिमाण से अतिरिक्त और सब कथन औधिक प्रकरण में जैसा कहा गया है वैसा ही जानना चाहीये । 'एवं जाव अहे सत्समाए' वि' और ऐसा ही सब कथन यावत् सातवी पृथिवी तक जानना चाहिये, ___'कण्हलेस्स खुडाग ते ओग नेरइया णं भते ! भगवन श्या શુજરાશિ પ્રમાણે નૈરયિકે કયાંથી આવીને નરકાવાસમાં ઉત્પન્ન થાય છે? ॥ प्रशन उत्तम प्रभुश्री ४ छ -'एवं चेत्र' हे गौतम ! आशा પ્રકરણમાં ઉત્પાદ વિગેરેના સંબંધમાં જે પ્રમાણેનું કથન કરવામાં આવ્યું છે, सेशन थन मड़ियां ५५५ समा. परंतु 'णवर तिन्नि वा सत्त वा एकारस वा पन्नरस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा' महियांत्र अथवा सात मया અગિયાર અથવા પંદર અથવા સંખ્યાત અથવા અસંખ્યાત નિરયિકે ઉત્પન્ન थाय छे. 'सेन त चेव' मा परिणाम द्वा२ शिवाय माडीनुसघणु ४यन माधि प्रभा २ मा वामां आवे छे, मेरा प्रभार समापु'. 'एवं जाव अहे सत्तमाए' वि' मने मान प्रमाणेनु सघणु थन यावत् सातमी શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭
SR No.006331
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages803
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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