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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३१ उ.१ सू०१ चतुर्युग्मनिरूपणम् १७३ रूपेण रत्नप्रभा क्षुल्लक योजनारकादारभ्य सप्तमीपृथिवी क्षुल्लक योजनारक विषयेऽपि सर्वमवगन्तव्यमिति । आलापादिकश्च सर्वत्र स्वयमेवोहनीय इति । 'खुड्डाग दावरजुम्मनेरहयाणं भंते ! कओ उववज्जति' क्षुल्लकद्वापरयुग्म नैरयिकाः खलु भदन्त ! कुत:-कस्मात् स्थानविशेषादागत्य नारकागसे समुत्प. यन्ते ? इति प्रश्नः, भगवानाह-एवं जहेच' इत्यादि, ‘एवं जहे। खुड्डागकडजुम्मे' एवं यथैव क्षुल्लककृतयुग्मः क्षुल्लककृतयुग्मनारकाणामुत्पादादिकं येन प्रकारेण पूर्व प्रतिपादितं तेनैव प्रकारेण संक्षेपविस्तराभ्यामिहापि सर्वमवगन्त. व्यम् । 'नवरं परिमाणं दो वा, छ वा, दस वा, चौदस वा, संखेज्जा वा, असं. खेज्मा वा, नवरं परिमाणं द्वौ वा षड् वा, दश वा, चतुर्दश वा संख्येया वा, चाहिए, आलापप्रकार इस सम्बन्ध में अपने आप उद्भावित करना चाहीये, ‘एवं जाब अहे सत्तमाए' जिस रूपसे औधिक क्षुल्लक योजराशि प्रमाण नैरयिका के सम्बन्ध में कहा गया है उसी रूप से रत्नप्रभा क्षुल्लक योजराशी प्रमाण नैरयिकों से लेकर सप्तमी पृथिवी के क्षुल्लक योजराशि प्रमाणवाले नैरयिकों के विषय में भी सब कथन करना चाहिये । तथा इस सम्बन्ध में आलापादिक सर्वत्र अपने आप उद्भावित करना चाहिये । खुड्डाग दावर जुम्मनेरइयाणं भंते ! को उववज्जति' हे भदन्त ! जो नैरयिक क्षुल्लकद्वापर युग्मराशि प्रमाण हैं वे नरकावास में कहां से आकर के उत्पन्न होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'एवं जहेव खुड्डाग कडजुम्मे' हे गौतम ! जैसा कथन क्षुल्लक कृतयुग्म गशि प्रमाणवाले नैरयिकों के उत्पातादि के सम्बन्ध में कहा गया है वैसा ही वह समस्त कथन संक्षेप और विस्तार से यहां पर भी આવેલ છે. એ જ પ્રમાણે રત્નપ્રભાના ભુલક જરાશિ પ્રમાણુવાળા નૈરવિકથી લઈને સાતમી પૃથ્વીના ક્ષુલ્લક જરાશિ પ્રમાણુવાળા નૈરવિકોના સંબંધમાં પણ સઘળું કથન કહેવું જોઈએ. તથા આ વિષયમાં આલાપ વિગેરે બધે જ સ્વયં બનાવીને સમજી લેવું જોઈએ. 'खुड्डाग दावरजुम्मनेरइया पं भते ! कओ उववज्जति' पर નૈરયિકે કુલકદ્વાપરયુગ્મપ્રમાણવાળા છે, તેઓ નરકાવાસમાં ક્યાંથી આવીને पन्न थाय छ ? म प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री ४ छे है-'एवजहेव खुड्डाग कडजुम्मे' गौतम क्षुद कृतयुगमाशी प्रभावामा नयिन उत्पा વિગેરેના સંબંધમાં જે પ્રમાણેનું કથન કરવામાં આવ્યું છે. એ જ પ્રમાણેનું ते ४थन स२५ भने विस्तारथी मडिया ५७ नये. 'नवर परिमाण सोवा छ वा चोइस वा संखेज्जा वा असखेज्जा वा' ते ४थन ४२i मायनमा શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭
SR No.006331
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages803
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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