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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३० उ.१२०४ जीवानां भवसिद्धिकत्वादिनि० १२७ नो संज्ञोपयुक्ता जीवा भवसिदिका मो अभवसिद्धिका भवन्तीति भावः। 'सवेदगा जाब नपुंसगवेदगा जहा सलेस्सा' सवेदका यावत् नपुंसकवेदकाः यथा सलेल्या यत्र यावत्पदेन स्त्रीपुरुषवेदकयोः संग्रहः तथा च सवेदकादारभ्य नपुंसकवेदकान्ताः सर्वेऽपि सलेक्यवदेव क्रियावादिनो भवमिद्धिका नो अमवसिदिका, अक्रियावादि प्रभृतयस्तु भवसिद्धिका अपि अभवसिदिका अपि भवन्तीति भावः। 'अधेयगा जहा सम्मदिट्टी' अवेदका यथा सम्यग्दृष्टयः सम्यादृष्टिवदेव साभा. न्यतो वेदरहिताः क्रियावादिनो भवसिदिका नो अभवसिद्धिका भवन्तीति। 'सकसाई जाव लोमकसाई जहा सलेस्सा' सषायिनो यावत् लोकतायिनी सम्मदिहि नो संज्ञोपयुक्त जीव सम्यग्दृष्टि के जैसे क्रियावादी अब स्था होने से भवसिद्धिक होते हैं, अभवसिद्धिक नहीं होते हैं। 'सवेदगा जाव नपुंसगवेदगा जहा सलेस्सा' सवेदक से लेकर नपुंसक वेद तक समस्त जीव सलेश्य जीवों के जैसे क्रियावादी अवस्था में भवसिद्धिक होते है अभवसिद्धिक नहीं होते हैं। यहां यावत्पद से स्त्री वेदकों और पुरुषवेदकों का ग्रहण हुआ है। तथा अक्रियावादी अज्ञानिकवादी और वैनयिकवादी अवस्था में ये सष भवसिद्धिक भी होते हैं और अभयसिद्धिक भी होते हैं। 'अवेयगा जहा सम्मदिट्टी' अवेदक सम्यग्दृष्टि के जैसे ही क्रियावादी होने से भसिद्धिक होते हैं अभवसिद्धिक नहीं होते हैं। 'सकसाई जाव लोभकसाई जहा सलेस्सा' सकषायी यावत् लोभकषायी जीव सलेश्य जीवों के जैसे ही क्रियावादी अवस्था में भवसिद्धिक होते हैं अभवसिद्धिक नहीं होते हैं। यहां ને સાગવાળા જ સમ્યગ્દષ્ટિવાળા જીવોના કથન પ્રમાણે કિયાવાદી अवस्थामा मसिद्ध डाय छे. सिद्ध होता नथी 'सवेदगा जाव नपंसग. वेगा जहा सलेस्सा' हा सवे वाथी बननस वह सुधीन सघा જ લેશ્યાવાળા જીવોના કથન પ્રમાણે ક્રિયાવાદી અવસ્થામાં ભવસિદ્ધિક હોય છે અભાવસિદ્ધિક હોતા નથી. અહિયાં ભાવપદથી સ્ત્રીવેદવાળા અને પુરૂષ વેદવાળા ગ્રહણ કરાયા છે તથા અદિયાવાદી, અજ્ઞાનવાદી, અને વૈનાયિકવાદી અવસ્થામાં माया सिद्धि: ५५ य छ, भने मनसिद्धि पशु खाय छे. 'अवेयगा जाव सम्मदिद्रि' २०३६ ७५ सम्यग्दृष्टयान थन प्रभार लियावाही अवस्थामा ससिद्धिः डाय छे. मसिद्ध नथी 'सकलाई जाव लोभकसाई जहा सलेस्सा' सपायी यावत् पायवाण! श्या. વાળા જીના કથન પ્રમાણે ક્રિયાવાદી અવસ્થામાં ભવસિદ્ધિક હોય છે. શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭
SR No.006331
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages803
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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