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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३० उ.१ सू० आयुर्वन्धनिरूपणम्
९५ पुर्वन्ति न था मनुष्यायुष्कं कुर्वन्ति किन्तु वैमानिकदेवमात्रसम्बन्ध्यायुषो बन्धं कुर्वन्तीति भावः । 'सवेदगा जाव नपुंसगवयगा जहा सलेस्सा' सवेदका यावत् नपुंसकवेदका यथा सलेश्याः सलेश्यजीवव देव सवेदकाः पुरुषवेदकाः, स्त्रीवेदकार नपुंमकवेदकाश्च नारकायुरपि कुर्वन्ति तिर्यग्योनिकायुरपि कुर्वन्ति मनुष्यायुरपि कुर्वन्ति देवायुरपि कुर्वन्तीति भावः । 'अवेदगा जहा अलेस्सा' अवेदका सामा न्यतो वेदरहिता जीवाः अलेश्यजीववदेव न नारकायुष्कं कुर्वन्ति न वा तिर्यग्योनिकायुष्क कुर्वन्ति न वा मनुष्यायुष्क कुर्वन्ति न वा देगयुष्क बध्नन्तीति भावः । 'सकसाई जाव लोमकसाई जहा सलेस्सा' सहपायिनो यावत् लोभकषायिनो यथा सले श्याः यावत्पदेन क्रोषमानमायाकषायवतां ग्रहणं भवति तथा च सकपायिणो जीवाः क्रोधमानमायालोभषायिणश्च चत्वार्यपि नारकतियंग्मनुष्यदेवायूंषि कुर्वन्तीति भावः । 'अकसाई जहा अलेस्सा' अकषायिनो यथा अलेश्या हैं। न नैरयिकायु का वे बन्ध करते हैं, न तिथं गायुका वे बन्ध करते हैं और मनुष्यायुका भी वे बन्ध नहीं करते हैं। 'सवेदगा जाव नपुंसगवेदगा जहा सलेम्सा' सलेश्य जीवों के जैसे सवेदक जीव यावत् नपुंसकवेदक जीव नैरयिक आयुका भी बन्ध करते हैं, तिर्यगायुका भी बन्ध करते हैं, मनुष्यायुका भी बन्ध करते हैं और देवायुका भी बन्ध करते हैं। 'अवेदगा जहा अलेस्सा' अवेदक जीव अलेश्य जीवों के जैसे किसी भी आयुका बन्ध नहीं करते हैं। 'सकप्ताई जाव लोभकसाई जहा सस्सा' सलेश्य जीवों के जैसे सकषायी जीव यावत् लोभ कषायी जीव चारों आयुओं का बन्ध करता हैं। यहां यावत्पद से क्रोध कषायी, मानकषायी, और मायाकषायी' इन तीन पदों का ग्रहण हुआ है। 'अकसाई जहा अलेस्सा' अलेश्य जीवों के जैसे अकषायी કરે છે. તેઓ નરયિક આયુને બંધ કરતા નથી. તિર્યંચ આયુનો બંધકરતા नथी. साने मनुष्य मायुन। ५ सय ४२ता नथी, 'सवेदगा जाव नपुंसगवेदगा' जहा सलेस्सा' श्यापासवाना थन प्रभारी सव । यावत् नस। વેઠવાળા જીવ નરથિક આયુને પણ બંધ કરે છે, તિર્યંચ આયુને પણ બંધ કરે છે. મનુષ્ય આયુને પણ બંધ કરે છે અને દેવ આને પણ બંધ ३२ छे. 'अवेदगा जहा अलेस्सा' अव १ वेश्या विनाना पीना ४थन प्रमाणे ५५ आयुनोमध ४२ता नथी. 'सकमाई जाव लोभकमाई जहा सलेस्सा' श्यापामा वाना थन प्रमाणे पायाम व यावत् ક્રોધ કષાય માનકષાય માયાકષાય અને લેભકષાયવાળા જીવો ચારે પ્રકારના આયુષ્યને બંધ કરે છે, અહિયાં યાત્પદથી “ફોધકષાયી, માનકષાયી અને
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭