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________________ प्रमेयचद्रका टीका श० ६ उ० ३ सू० ३ कर्भ पुद्गलोपचयस्वरूपम् ८४७ साइए सपज्जवसिए ' हे गौतम ! वस्त्रस्य खलु पुद्गलोपचयः सादिकः सपर्यत्र सितः ‘णो साइए अपज्जवसिए' नो सादिकः अपर्यवसितः ‘णो अणाइए सपज्जवसिए ' नो वा अनादिकः सपर्यवसितः, ' णो अणाइए अपज्जवसिए' नापि अनादिकः अपर्यवसितो वा वस्त्रस्य पुद्गलोपचयो भवति, गौतमः पृच्छति'जहा णं भंते ! वत्थस्स पोग्गलोवचए साइए सपज्जवसिए ' हे भदन्त ! यथा खलु वस्त्रस्य पुद्गलोपचयः सादिकः-सपर्यवसितो भवति, ‘णो साइए गौतम ! 'वत्थस्स णं पोग्गलोवचए साइए सपज्जवसिए ) वस्त्र का जो पुद्गलापचय है वह सादि सान्त है ‘णो साइए अपज्जवसिए' सादि अनन्त नहीं है ‘णो अणाइए सपज्जवसिए' अनादि सान्त नहीं है (णो अणाइए अपज्जवसिए) और अनादि अनन्त भी नहीं है। कहने का भाव यह है कि वस्त्र में जो पुद्गलोपचय है वह प्रारंभ होने के कारण तो सादि है और भविष्य में वह नष्ट हो जाने वाला है इसलिये सान्त है सादि अपर्यवसित वह इसलिये नहीं है कि प्रारंभ होने पर भी वह शाश्वत-ध्रुव-रूप में नहीं रहा है, अनादि सपर्यवसित उसे इस लिये नहीं कहा गया है कि वस्त्र में उस पुद्गलोपचय की शुरुआत हुई है अनादि अपर्यवसित वह इसलिये अमान्य हुआ है कि वह प्रारंभसहित है और अन्तसहित है। अब गौतम प्रभु से पुनः पूछते हैं कि (जहा णं भंते ! वत्थस्स पोग्गलोवचए साइए सपज्जवसिए ) हे भदन्त जिस प्रकार से आपने वस्त्र के पुद्गलोपचय को सादि और सान्त कहा है (णो ( गोयमा ! वत्थस्स णं पोग्गलोवचए साइए सपज्जवसिए) हे गौतम ! वखना युद्धसान। 64यय ( वृद्धि) साहि सान्त डाय छे. (णो साइए अपज्जवसिए ) ते साही मनात डा। नथी. ( णो अणाइए सपज्जवसिए ) ते साल सनत डातो नथी, ( णो अणाइए सपज्जवसिए) ते मनाहि सान्त डा। नथी, (णो अणाइए अपज्जवसिए) त सानादि सनत પણ હોતું નથી. આ કથનનું તાત્પર્ય નીચે પ્રમાણે છે-વસને પલેપચય પ્રારંભથી યુક્ત હોય છે, તેથી તેને સાદિ કહ્યો છે. ભવિષ્યમાં તેનો નાશ થતો હોય છે, તેથી તેને સાન્ત કહ્યો છે. તેને પ્રારંભ થયા પછી તે શાશ્વત (નિત્ય) રૂપે રહેતો નથી તેથી તેને સાદિ અનંત કહ્યો નથી. તે મુદ્દલપચયને અનાદિ સાન્ત એ કારણે કહ્યો નથી કે વસ્ત્રમાં તે પુદ્ગલપચયને પ્રારંભ થયેલો છે. તેને અનાદિ અનંત કહ્યો નથી કારણ કે તે પ્રારંભ સહિત અને અન્ત સહિત છે. गौतम स्वामी हुवे भी प्रश्न पूछे छ- ( जहा णं भंते ! वत्थस्स पोग्गलो वचये साइए सपज्जवसिए) महन्त ! रेम पसना पसीना ५यय साह श्री. भगवती सूत्र:४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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