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________________ ३८ भगवतीसूत्र उपर्युक्तेन त्रिविधन प्रयोगेण जीवानां कर्मोपचयः-कर्मबन्धो भवति प्रयोगेणैव, नो विस्रसया स्वभावेन । ' एवं सव्वेसिं पंचिंदियाणं तिविहे पओगे भाणियचे' एवं-तथैव सर्वेषां पञ्चेन्द्रियाणां जीवानां त्रिविधः प्रयोगः मनोवचःकायभेदेन त्रिपकारो व्यापारो भणितव्यः । 'पुढवीकाइयाणं एगविहेणं पओगेणं' पृथिवीकायिकानां जीवानाम् एकविधेन प्रयोगेणैव कायव्यापाररूपेण कर्मोपचयो वक्तव्यः, 'एवं जाव-वणस्सइकाइयाणं' एवं पृथिवीकायिकवदेव यावत्-अपूकायिकतेजस्कायिक-वायुकायिकानां वनस्पतिकायिकानामपि एकविधेन कायव्यापार लक्षणेन प्रयोगेणैव कर्मोपचयो बोध्यः । 'विगलिंदियाणं दुविहे पओगे पण्यत्ते' गसा, नो वीससा) इस तीन प्रकार के प्रयोग से जीवों के कर्मोपचय होता है अतः इस कर्मोपचय-कर्मबंध में कारण जीव का त्रिविधरूप प्रयोग पड़ता है इसलिये वह कर्मोपचय प्रयोग से होता है स्वाभाव से नहीं, ऐसा मानना चाहिये ( एवं सम्वेसिं पंचिंदियाणं तिविहे पओगे भाणियब्वे ) जितने भी पंचेन्द्रिय जीव हैं, उन सब के यह तीन प्रकार का प्रयोग होता है (पुढवीकाइयाणं एगविहेणं पओगेणं) पृथिवीकायिक जो एकेन्द्रिय जीव हैं-उनके एक कायप्रयोग ही होता हैं-उससे वे कर्मोंपचय किया करते हैं। (एवं जाव वणसह काइयाणं) इसी तरह से अपकार्यिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक ये एके. न्द्रिय जीव भी एक केवल कायप्रयोग से ही कर्मोपचय करते रहते हैं ऐसा जानना चाहिये । अब रहे दोइन्द्रिय तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीव सो ये (विगलेंदियाणं दुविहे पओगे पण्णत्ते) इन विकलेन्द्रिय जीवों के ત્રણ પ્રકારના પ્રયોગથી જીવોને કર્મોપચય થાય છે. તેથી આ કર્મોપચયના ( કર્મબંધના) કારણ રૂપ જીવના એ ત્રિવિધ પ્રયોગ ગણાય છે. તેથીજ એવું કહ્યું છે કે કપચય પ્રયોગથી જ થાય છે, સ્વભાવથી થતો નથી. ( एवं सव्वेसिं पंचिंदियाणं तिविहे पओगे भाणियव्वे ) मे२४ प्रमाणे या पये. न्द्रिय वनां ५ मे x प्रयास डाय छे. (पुढबीकाइयाणं एगविहेण' पओगेण) यि वान से प्रयोग डाय छे. तेस ते प्रयोग द्वारा १ ४५यय ४२ छ. ( एवं जाव वणस्सइकाईयाण) १ प्रभारी અપૂકાય, તેજસ્કાય, વાયુકાય અને વનસ્પતિકાય, એ એકેન્દ્રિય જીવોને પણ ફક્ત એક જ પ્રયોગ–કાયપ્રયોગ હોય છે, અને તેઓ કાયપ્રયોગથી જ કર્મો५यय ४२ता २९ छ. (विगलेंदियाण दुविहे पभोगे पण्णत्त ) वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय અને ચતુરિન્દ્રિય, એ વિકલન્દ્રિય, જીના બે પગ હોય છે. श्री.भगवती सूत्र:४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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