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प्रमैयचन्द्रिका टीका० श ६ उ० ३ सू० २ जीवकर्मनिरूपणम् ८३५ प्रयोगश्च । इत्येतेन द्विविधेन प्रयोगेण कर्मोपचयः प्रयोगेण, न विस्रसया, तत् तेनार्थेन यावत्-नो विस्रसया, एवं यस्य यः प्रयोगः यावत्-वैमानिकानाम् ॥मू० ॥२
टीका- वत्थस्स णं भंते ! पोग्गलोवचए किं पयोगसा, वीससा ?' गौतमः पृच्छति-हे भदन्त ! वस्त्रस्य खलु पुद्गलानाम् उपचयः-वृद्धिः किम् प्रयोगेण पुरुषव्यापारेण ? होस्वित् विस्रसया स्वभावेन, पुरुषव्यापारमन्तराऽपि वचनप्रयोग और दूसरा कापप्रयोग (इच्चेएणं दुविहेणं पओगेणं कम्मो. वचए पओगसा णो वीससा) इन दो प्रकार के प्रयोगों से कर्म का उपचय विकलेन्द्रिय जीवों के होता है अतः वह स्वाभाविकरूप से नहीं होता है (से तेणटेणं जाव णो वीससा) इस कारण हे गौतम ! मैंने ऐसा कहा है जीवों के कर्म का उपचय यावत् स्वाभाविकरूप से नहीं होता है ( एवं जस्स जो पओगो-जाव वेमाणियाणं) इस तरह जिस जीव के जो प्रयोग हो वह उस तरह से यावत् वैमानिक देवों तक कहना चाहिये।
टीकार्थ-सूत्रकार इस सूत्र द्वारा वस्त्रपुद्गलोपचय के दृष्टान्त से जीव और कर्मपुद्गलों के उपचय का प्रतिपादन कर रहे हैं-इसमें गौतम ने प्रभुसे ऐसा पूछा है कि (वत्थस्स णं भंते ! पोग्गलोवचये किं पयोगसा वीससा?) हे भदन्त ! वस्त्र के पुद्गलों का जो उपचय-वृद्धि होता है, वह क्या प्रयोग से-पुरुषप्रयत्न से होता है या स्वाभाविकरूप से होता (वइप्पओगे, कायप्पओगे य )(१) वयनप्रया भने (२) ययात. ( इच्चेएणं दुविहेणं पओगेणं कम्मोवचए पओगसा णो वीससा) मा में प्रयोगथी विशेन्द्रिय અને કર્મને ઉપચય થાય છે. તેથી સ્વાભાવિક રૂપે તેમને કમને ઉપચય થત नथी. (से तेण टेणं जाव णो वीससा) : गौतम ! ते ४२६ मे मे ४ह्यु छ है
वाने प्रयोगथी भने। ५यय थाय छ, स्वाभावि ३पे था नथी. (एवं जस्स जो पओगो-जाव वेमाणियाणं) मारीते २ ना २ प्रयोग डाय, તે પ્રયોગથી તે જીવ કર્મને ઉપચય કરે છે. વિમાનિક દેવ પર્યન્તના જીના વિષયમાં પણ એમ જ સમજવું.
ટીકાર્થ–સૂત્રકારે આ સૂત્રમાં વસ્ત્રના પુલ પચયના દષ્ટાન્ત દ્વારા જીવ અને કર્મ પુદ્ગલેના ઉપચયનું પ્રતિપાદન કર્યું છે. ગૌતમ સ્વામી મહાવીર પ્રભુને मेको प्रश्न पूछे छे (वस्थस्स णं भंते ! पोग्गलोवचये किं पयोगसा वीसमा १) હે ભદન્ત ! વસ્ત્રના પુદ્ગલેને જે ઉપચય (જમાવટ, વૃદ્ધિ) થાય છે, તે શું પ્રયોગથી (પુરુષ પ્રયત્નથી) થાય છે, કે સ્વાભાવિક રીતે થાય છે? એટલે કે પુરુષ પ્રયત્ન વિના થાય છે ?
श्री. भगवती. सूत्र:४